श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 7: दक्ष द्वारा यज्ञ सम्पन्न करना  »  श्लोक 15
 
 
श्लोक  4.7.15 
योऽसौ मयाविदिततत्त्वद‍ृशा सभायां
क्षिप्तो दुरुक्तिविशिखैर्विगणय्य तन्माम् ।
अर्वाक् पतन्तमर्हत्तमनिन्दयापाद्
द‍ृष्टय‍ार्द्रया स भगवान्स्वकृतेन तुष्येत् ॥ १५ ॥
 
शब्दार्थ
य:—जो; असौ—उस; मया—मेरे द्वारा; अविदित-तत्त्व—वास्तविकता को जाने बिना; दृशा—अनुभव से; सभायाम्—सभा में; क्षिप्त:—गाली दिया गया; दुरुक्ति—कटु वचन रूपी; विशिखै:—बाणों से; विगणय्य—परवाह न करके; तत्—वह; माम्—मुझको; अर्वाक्—नीचे की ओर; पतन्तम्—नरक में गिरते हुए; अर्हत्-तम—सर्वाधिक पूज्य; निन्दया—निन्दा से; अपात्—बचा लिया; दृष्ट्या—देख कर; आर्द्रया—दयावश; स:—वह; भगवान्—भगवान्; स्व-कृतेन—अपनी कृपा से; तुष्येत्—प्रसन्न हो ।.
 
अनुवाद
 
 मैं आपकी समस्त कीर्ति से परिचित न था। अत: मैंने खुली सभा में आपके ऊपर कटु शब्द रूपी बाणों की वर्षा की थी, तो भी आपने उनकी कोई परवाह नहीं की। मैं आप जैसे परम पूज्य पुरुष के प्रति अवज्ञा के कारण नरक में गिरने जा रहा था, किन्तु आपने मुझ पर दया कर के और दण्डित करके मुझे उबार लिया है। मेरी प्रार्थना है कि आप अपने ही अनुग्रह से प्रसन्न हों, क्योंकि मुझमें वह सामर्थ्य नहीं कि मैं अपने शब्दों से आपको तुष्ट कर सकूँ।
 
तात्पर्य
 जब भक्त पर विपत्ति आती है, तो वह प्राय: इसे भगवान् के अनुग्रह रूप में स्वीकार कर लेता है। वस्तुत: दक्ष ने शिव के प्रति जो अपमानजनक शब्द कहे थे, वे उसे सदा के लिए नरक में गिराने के लिए पर्याप्त थे। किन्तु उसके प्रति दयालु होने के कारण शिवजी ने उसके अपराध को निष्क्रिय करने के लिए दण्ड दिया। दक्ष ने इसको अनुभव किया और उनकी इस महानता के लिए अपने आप को उनका अनुग्रहीत समझा। कभी-कभी पिता बच्चे को दण्ड देता है और जब बच्चा बड़ा हो जाता है और समझ हो जाती है, तो वह यह समझता है कि उसके पिता ने जो दण्ड दिया था वह वास्तव में दण्ड न होकर दया थी। इसी प्रकार दक्ष ने शिव द्वारा दिये गये दण्ड को उनकी कृपा का प्रदर्शन समझा। ऐसे पुरुष का यह लक्षण है जो कृष्णभावनामृत के मार्ग पर अग्रसर होता है। कहा जाता है कि कृष्ण-भावनाभावित भक्त जीवन की किसी भी दयनीय अवस्था को श्रीभगवान् द्वारा की गई भर्त्सना नहीं मानता। वह दयनीय अवस्था को भगवत्कृपा मानकर ग्रहण करता है। वह सोचता है, “मैं अपने पूर्व दुष्कर्मों के कारण या तो दण्डित होता या इससे भी अधिक भयावह स्थिति में जा पड़ता, किन्तु भगवान् ने मेरी रक्षा कर ली। इस प्रकार कर्म के नियमानुसार मुझे थोड़ा सा ही दण्ड मिला।” भगवान् की कृपा को इस प्रकार सोचकर भक्त भगवान् के समक्ष अत्यन्त गम्भीरतापूर्वक आत्म-समर्पण करता है और तथाकथित दण्ड से तनिक भी विचलित नहीं होता।
 
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