श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 7: दक्ष द्वारा यज्ञ सम्पन्न करना  »  श्लोक 2
 
 
श्लोक  4.7.2 
महादेव उवाच
नाघं प्रजेश बालानां वर्णये नानुचिन्तये ।
देवमायाभिभूतानां दण्डस्तत्र धृतो मया ॥ २ ॥
 
शब्दार्थ
महादेव:—शिव ने; उवाच—कहा; न—नहीं; अघम्—पाप; प्रजा-ईश—हे प्रजापति; बालानाम्—बच्चों का; वर्णये—सत्कार करता हूँ; न—नहीं; अनुचिन्तये—मानता हूँ; देव-माया—भगवान् की बहिरंगा शक्ति के; अभिभूतानाम्—द्वारा ठगे हुओं का; दण्ड:—डंडा; तत्र—वहाँ; धृत:—प्रयुक्त; मया—मेरे द्वारा ।.
 
अनुवाद
 
 शिवजी ने कहा : हे पूज्य पिता ब्रह्माजी, मैं देवताओं द्वारा किये गये अपराधों की परवाह नहीं करता। चूँकि ये देवता बालकों के समान अल्पज्ञानी हैं, अत: मैं उनके अपराधों पर गम्भीरतापूर्वक विचार नहीं कर रहा हूं। मैंने तो उन्हें राह पर लाने के लिए ही दण्डित किया है।
 
तात्पर्य
 दण्ड दो प्रकार का होता है। एक तो वह जो विजेता अपने शत्रु को देता है और दूसरा वह जो पिता अपने पुत्र को देता है। दोनों प्रकार के इन दण्डो में जमीन-आसमान का अन्तर है। भगवान् शिव स्वभाव से वैष्णव हैं और इसलिए उनको आशुतोष कहा जाता है। वे सदैव प्रसन्न रहते हैं, अत: वे शत्रु की भाँति तनिक भी क्रुद्ध नहीं हुए। वे किसी के भी शत्रु नहीं, वरन् वे सबों के शुभचिन्तक हैं। जब भी वे किसी को दण्ड देते हैं, तो उसी प्रकार देते हैं जिस तरह पिता पुत्र को दण्डित करता है। शिवजी पिता तुल्य हैं, क्योंकि वे किसी जीवात्मा के, विशेष रूप से देवताओं के, अपराधों को गम्भीरता से नहीं लेते।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥