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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 7: दक्ष द्वारा यज्ञ सम्पन्न करना  »  श्लोक 21
 
 
श्लोक  4.7.21 
वक्षस्यधिश्रितवधूर्वनमाल्युदार
हासावलोककलया रमयंश्च विश्वम् ।
पार्श्वभ्रमद्वय‍जनचामरराजहंस:
श्वेतातपत्रशशिनोपरि रज्यमान: ॥ २१ ॥
 
शब्दार्थ
वक्षसि—छाती पर; अधिश्रित—स्थित; वधू:—स्त्री (लक्ष्मी); वन-माली—वनपुष्पों की माला पहने; उदार—सुन्दर; हास— हँसती हुई; अवलोक—चितवन; कलया—किंचित्; रमयन्—मोहक; —तथा; विश्वम्—पूरा संसार; पार्श्व—बगल; भ्रमत्— आगे-पीछे हिलते हुए; व्यजन-चामर—झलने के लिए सफेद चबँरी गाय की पूँछ; राज-हंस:—हंस; श्वेत-आतपत्र-शशिना— चन्द्र के समान श्वेत छत्र से; उपरि—ऊपर; रज्यमान:—सुन्दर दिखता हुआ ।.
 
अनुवाद
 
 भगवान् विष्णु असाधारण रूप से सुन्दर लग रहे थे, क्योंकि उनके वक्षस्थल पर ऐश्वर्य की देवी (लक्ष्मी) तथा एक हार विराजमान थे। उनका मुख मन्द हास के कारण अत्यन्त सुशोभित था, जो सारे जगत को और विशेष रूप से भक्तों के मन को मोहने वाला था। भगवान् के दोनों ओर श्वेत चामर डुल रहे थे, मानो श्वेत हंस हों और उनके ऊपर तना हुआ श्वेत छत्र चन्द्रमा के समान लग रहा था।
 
तात्पर्य
 भगवान् विष्णु का हँसता मुख सारे संसार को भानेवाला है। उनकी ऐसी हँसी से न केवल भक्तजन, वरन् अभक्त भी आकर्षित होते हैं। इस श्लोक में सूर्य, चन्द्रमा, आठ दल वाला कमल तथा भौंरे की उपमा चामर, छत्र, मुख में दोनों ओर हिलते कुंडल, तथा काले-काले बालों से दी गई है। इन सबके साथ ही आठों भुजाओं में शंख, चक्र, गदा, पद्म, धनुष, बाण, ढाल तथा तलवार धारण करने के कारण ऐसा भव्य तथा सुन्दर रूप प्रस्तुत था, जो दक्ष तथा ब्रह्मा समेत सभी दर्शकों को मोहित करने वाला था।
 
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