सदस्या:—सभा के सदस्य; ऊचु:—बोले; उत्पत्ति—जन्म-मृत्यु का चक्र; अध्वनि—के मार्ग पर; अशरणे—जिसका आश्रय न हो; उरु—महान; क्लेश—कष्टकारक; दुर्गे—किले में; अन्तक—अन्त; उग्र—डरावना; व्याल—सर्प; अन्विष्टे—परिपूर्ण; विषय—भौतिक सुख; मृग-तृषि—मृग-तृष्णा; आत्म—शरीर; गेह—घर; उरु—भारी; भार:—भार, बोझ; द्वन्द्व—द्वैत; श्वभ्रे— छिद्र, सुख तथा दुख के खंदक; खल—दुष्ट; मृग—पशु; भये—डरा हुआ; शोक-दावे—शोक रूपी दावाग्नि; अज्ञ-स- अर्थ:—दुष्टों के हित के लिए; पाद-ओक:—चरणकमलों की शरण; ते—तुम्हारे; शरण-द—शरण देने वाला; कदा—जब; याति—गया; काम-उपसृष्ट:—सभी प्रकार की इच्छाओं से दुखित ।.
अनुवाद
सभा के सदस्यों ने भगवान् को सम्बोधित किया—हे संतप्त जीवों के एकमात्र आश्रय, इस बद्ध संसार के दुर्ग में काल-रूपी सर्प प्रहार करने की ताक में रहता है। यह संसार तथाकथित सुख तथा दुख की खंदकों से भरा पड़ा है और अनेक हिंस्र पशु आक्रमण करने को सन्नद्ध रहते हैं। शोक रूपी अग्नि सदैव प्रज्ज्वलित रहती है और मृषा सुख की मृगतृष्णा सदैव मोहती रहती है, किन्तु मनुष्य को इनसे छुटकारा नहीं मिलता। इस प्रकार अज्ञानी पुरुष जन्म-मरण के चक्र में पड़े रहते हैं और अपने तथाकथित कर्तव्यों के भार से सदा दबे रहते हैं। हमें ज्ञात नहीं कि वे आपके चरणकमलों की शरण में कब जाएँगे।
तात्पर्य
जो मनुष्य कृष्ण-भक्ति नहीं करते, उनका जीवन अत्यन्त शोचनीय है, जैसाकि इस श्लोक में बताया गया है। किन्तु ये परिस्थितियाँ कृष्ण को विस्मृत करने के कारण आती हैं। कृष्णभावनामृत आन्दोलन इन समस्त मोहग्रस्त तथा दुखी मनुष्यों को राहत देने के लिए है; अत: यह समस्त मानव समाज के लिए सबसे बड़ा राहत-कार्य है और इसके कार्यकर्ता सर्वोत्कृष्ट शुभचिन्तक हैं, क्योंकि वे भगवान् चैतन्य के चरण-चिह्नों का अनुसरण करते हैं, जो सभी जीवात्माओं के परम सखा हैं।
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