शिवजी ने कहा : हे भगवान्, मेरा मन तथा मेरी चेतना निरन्तर आपके पूजनीय चरणकमलों पर स्थिर रहती है, जो समस्त वरों तथा इच्छाओं की पूर्ति के स्रोत होने के कारण समस्त मुक्त महामुनियों द्वारा पूजित हैं क्योंकि आपके चरण कमल ही पूजा के योग्य। आपके चरणकमलों में मन को स्थिर रखकर मैं उन व्यक्तियों से विचलित नहीं होता जो यह कहकर मेरी निन्दा करते हैं कि मेरे कर्म पवित्र नहीं हैं। मैं उनके आरोपों की परवाह नहीं करता और मैं उसी प्रकार दयावश उन्हें क्षमा कर देता हूँ, जिस प्रकार आप समस्त जीवों के प्रति दया प्रदर्शित करते हैं।
तात्पर्य
यहाँ पर शिवजी अपने क्रुद्ध होने तथा दक्ष के यज्ञ-कार्य को विध्वंस करने के लिए खेद व्यक्त करते हैं। राजा दक्ष ने कई प्रकार से उनका अपमान किया था जिससे क्रुद्ध होकर उन्होंने उसका सम्पूर्ण यज्ञ-उत्सव तहस-नहस कर दिया था। बाद में उनके प्रसन्न होने पर सारा यज्ञ कार्य पुन: सम्पन्न हुआ, अत: उन्होंने अपने कार्यों के लिए खेद व्यक्त किया। अब वे कहते हैं कि चूँकि उनका मन भगवान् के चरणकमलों में स्थिर रहता है, अत: वे उन सामान्य आलोचकों से, जो उनके आचरण की आलोचना करते हैं, तनिक भी विचलित नहीं होते। शिव के इस कथन से यह समझना चाहिए कि जब तक मनुष्य भौतिक स्तर पर रहता है, तब तक वह प्रकृति के तीन गुणों से प्रभावित होता रहता है, किन्तु जैसे ही वह कृष्णभक्ति करने लगता है, उसे ये भौतिक कार्यकलाप प्रभावित नहीं करते। अत: मनुष्य को सदा कृष्णभावनामृत में स्थिर रहना चाहिए और भगवान् की दिव्य प्रेमभक्ति में व्यस्त रहना चाहिए। यह निश्चित है कि ऐसे भक्त को प्रकृति के तीनों गुणों के कर्मबन्धन नहीं सताते। इस तथ्य की पुष्टि भगवद्गीता से भी होती है—जो भगवान् की दिव्य सेवा में अनुरक्त है, वह समस्त भौतिक गुणों को पार करके ब्रह्म-साक्षात्कार की स्थिति को प्राप्त होता है, जिसमें उसे भौतिक वस्तुओं के पीछे दौड़ कर दुखी नहीं होना पड़ता। श्रीमद्भागवत की संस्तुति है कि मनुष्य को सदैव कृष्णभावनाभावित होना चाहिए और भगवान् से अपने दिव्य सम्बन्ध को विस्मृत नहीं करना चाहिए। इस कार्यक्रम का हर एक को दृढ़ता से पालन करना चाहिए। शिव के कथन से प्रतीत होता है कि वे निरन्तर कृष्णमें लीन रहते थे जिससे वे भौतिक तापों से दूर रहे। अत: एकमात्र ओषधि है कि दृढ़ता से कृष्णभक्ति की जाये जिससे भौतिक गुणों के कल्मष से बाहर निकला जा सके।
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