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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 7: दक्ष द्वारा यज्ञ सम्पन्न करना  »  श्लोक 30
 
 
श्लोक  4.7.30 
भृगुरुवाच
यन्मायया गहनयापहृतात्मबोधा
ब्रह्मादयस्तनुभृतस्तमसि स्वपन्त: ।
नात्मन् श्रितं तव विदन्त्यधुनापि तत्त्वं
सोऽयं प्रसीदतु भवान्प्रणतात्मबन्धु: ॥ ३० ॥
 
शब्दार्थ
भृगु: उवाच—उवाच श्रीभृगु ने कहा; यत्—जो; मायया—माया से; गहनया—दुर्लंघ्य; अपहृत—चुराया हुआ; आत्म-बोधा:— स्वाभाविक स्थिति का ज्ञान; ब्रह्म-आदय:—ब्रह्मा इत्यादि; तनु-भृत:—जीवात्माओं सहित; तमसि—मोहान्धकार में; स्वपन्त:—सोये हुए; —नहीं; आत्मन्—जीवात्मा में; श्रितम्—स्थित; तव—तुम्हारा; विदन्ति—जानते हैं; अधुना—अब; अपि—निश्चय ही; तत्त्वम्—परम पद; स:—वह (आप); अयम्—यह; प्रसीदतु—प्रसन्न हों; भवान्—आप; प्रणत-आत्म— शरणागत जीव के; बन्धु:—सखा, मित्र ।.
 
अनुवाद
 
 भृगु मुनि ने कहा : हे भगवन्, सर्वोच्च ब्रह्मा से लेकर सामान्य चींटी तक सारे जीव आपकी माया शक्ति के दुर्लंघ्य जादू के वशीभूत हैं और इस प्रकार वे अपनी स्वाभाविक स्थिति से अपरिचित हैं। देहात्मबुद्धि में विश्वास करने के कारण सभी मोह के अंधकार में पड़े हुए हैं। वे वास्तव में यह नहीं समझ पाते कि आप प्रत्येक जीवात्मा में परमात्मा के रूप में कैसे रहते हैं, न तो वे आपके परम पद को ही समझ सकते हैं। किन्तु आप समस्त शरणागत जीवों के नित्य सखा एवं रक्षक हैं। अत: आप हम पर कृपालु हों और हमारे समस्त पापों को क्षमा कर दें।
 
तात्पर्य
 दक्ष के यज्ञ-समारोह में ब्रह्मा तथा शिव समेत सबों ने जो अपयशपूर्ण आचरण प्रदर्शित किया था भृगु मुनि उससे अवगत थे। इस संसार में जीवात्माओं में प्रमुख ब्रह्मा का नाम लेकर वे बताना चाह रहे थे कि विष्णु को छोडक़र ब्रह्मा तथा शिव समेत सभी देहात्म-बुद्धि तथा माया के जादू के वश में थे। यही भृगु की दृष्टि है। जब तक मनुष्य शरीर को आत्मरूप मानता है, तब तक वह परमात्मा या भगवान् को नहीं समझ पाता। भृगु ने अपने को भी अपराधकर्ताओं की सूची में सम्मिलित किया क्योंकि वह जानता था कि वह ब्रह्मा से बड़ा नहीं है। अज्ञानी पुरुषों या बद्धजीवों को माया के वशीभूत होकर अपनी दयनीय स्थिति को स्वीकार करने के अतिरिक्त कोई दूसरा रास्ता नहीं बचता। इसकी एकमात्र ओषधि विष्णु की शरण में जाकर सदैव क्षमा-याचना करना है। उद्धार के लिए मात्र भगवान् की अहैतुकी कृपा पर निर्भर करना चाहिए, अपनी शक्ति पर नाममात्र भी आश्रित नहीं होना चाहिए। कृष्णभावनाभावित मनुष्य (भक्त) की यही सिद्ध स्थिति है। भगवान् वैसे तो सबों के सखा हैं, लेकिन जो शरणागत हैं, वे उनके विशेष मित्र हैं। अत: सरल उपाय यही है कि बद्धजीव भगवान् की शरण में रहे तो भगवान् उसे सभी भौतिक बन्धनों से दूर रखेंगे।
 
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