श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 7: दक्ष द्वारा यज्ञ सम्पन्न करना  »  श्लोक 32
 
 
श्लोक  4.7.32 
इन्द्र उवाच
इदमप्यच्युत विश्वभावनं
वपुरानन्दकरं मनोद‍ृशाम् ।
सुरविद्विट्‌क्षपणैरुदायुधै
र्भुजदण्डैरुपपन्नमष्टभि: ॥ ३२ ॥
 
शब्दार्थ
इन्द्र: उवाच—राजा इन्द्र ने कहा; इदम्—यह; अपि—निश्चय ही; अच्युत—हे अच्युत; विश्व-भावनम्—विश्व के कल्याण हेतु; वपु:—दिव्य रूप; आनन्द-करम्—आनन्द के कारण; मन:-दृशाम्—मन तथा नेत्रों को; सुर-विद्विट्—आपके भक्तों से ईर्ष्यालु; क्षपणै:—दण्ड द्वारा; उद्-आयुधै:—हथियार उठाये; भुज-दण्डै:—बाहों से; उपपन्नम्—युक्त; अष्टभि:—आठ ।.
 
अनुवाद
 
 राजा इन्द्र ने कहा : हे भगवन्, प्रत्येक हाथ में आयुध धारण किये आपका यह अष्टभुज दिव्य रूप सम्पूर्ण विश्व के कल्याण हेतु प्रकट होता है और मन तथा नेत्रों को अत्यन्त आनन्दित करने वाला है। आप इस रूप में अपने भक्तों से ईर्ष्या करने वाले असुरों को दण्ड देने के लिए सदैव तत्पर रहते हैं।
 
तात्पर्य
 शास्त्रों से सामान्यत: ज्ञात होता है कि भगवान् विष्णु चतुर्भुज रूप में प्रकट होते हैं, किन्तु इस विशिष्ट यज्ञस्थल पर वे अष्टभुज रूप में आये। राजा इन्द्र ने कहा, “यद्यपि हम आपके चतुर्भुज विष्णु रूप देखने के अभ्यस्त हैं, किन्तु आपका यह अष्टभुज रूप भी उतना ही यथार्थ है।” जैसाकि ब्रह्मा कह चुके हैं, भगवान् के दिव्य रूप का दर्शन करना इन्द्रियों की शक्ति के परे है। ब्रह्मा के इस कथन के उत्तर में, राजा इन्द्र ने कहा कि यद्यपि भगवान् का दिव्य रूप भौतिक इन्द्रियों से नहीं देखा जा सकता, उनके कार्यकलाप और दिव्य रूप को समझा जा सकता है। भगवान् का असामान्य रूप, असामान्य गुण तथा असामान्य सौंदर्य सामान्य पुरुष द्वारा भी देखा जा सकता है। उदाहरणार्थ, जब वृन्दावन में भगवान् कृष्ण छह-सात वर्ष के बालक रूप में प्रकट हुए तो वहाँ के वासी उन्हें देखने आये। वहाँ पर मूसलाधार वर्षा हुई तो भगवान् ने गोवर्धन पर्वत उठाकर वृन्दावनवासियों की रक्षा की और पर्वत को सात दिनों तक बाएँ हाथ की कनिष्ठा अँगुली पर उठाये रखा। यह असामान्य गुण उन भौतिकतावादी पुरुषों को भी विश्वास दिलाने वाला है, जो अपनी भौतिक इन्द्रियों की सीमा तक ही कल्पना कर सकते हैं। भगवान् की लीलाएँ व्यावहारिक दृष्टि से भी मन को भाने वाली हैं, किन्तु निर्गुणवादी इस रूप पर विश्वास नहीं करते, क्योंकि वे भगवान् के व्यक्तित्व की तुलना अपने व्यक्तित्व से करते हैं। चूँकि इस भौतिक जगत के लोग पर्वत नहीं उठा सकते, अत: उन्हें विश्वास ही नहीं हो पाता कि भगवान् ऐसा कर सकते हैं। वे श्रीमद्भागवत के कथन को रूपक मानते हैं और वे उसकी विवेचना अपने ढंग से करते हैं। किन्तु तथ्य यह है कि भगवान् ने वृन्दावन के सभी निवासियों के समक्ष पर्वत उठा लिया था, जैसाकि व्यासदेव तथा नारद जैसे महान् आचार्यों तथा लेखकों ने पुष्टि की है। भगवान् के कार्य, लीलाएँ तथा असामान्य गुण—इन सबों को यावत् रूप में स्वीकार करना होगा और इस तरह से हम आज भी भगवान् को समझ सकते हैं। यहाँ दिये गये उदाहरण में इन्द्र ने पुष्टि की “आपका यह अष्टभुज रूप आपके चतुर्भुज रूप के ही समान उत्तम है।” इसमें कोई सन्देह नहीं।
 
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