याज्ञिकों की पत्नियों ने कहा : हे भगवान्, वह यज्ञ ब्रह्मा के आदेशानुसार व्यवस्थित किया गया था, किन्तु दुर्भाग्यवश दक्ष से क्रुद्ध होकर शिव ने समस्त दृश्य को ध्वस्त कर दिया और उनके रोष के कारण यज्ञ के निमित्त लाये गये पशु निर्जीव पड़े हैं। अत: यज्ञ की सारी तैयारियाँ बेकार हो चुकी हैं। अब आपके कमल जैसे नेत्रों की चितवन से इस यज्ञस्थल की पवित्रता पुन: प्राप्त हो।
तात्पर्य
यज्ञ में पशुओं को नया जीवन प्रदान करने के लिए उनकी बलि दी जाती थी; वहाँ पर पशुओं के लाये जाने का यही प्रयोजन था। यज्ञ में पशु की बलि और इसे नवजीवन प्रदान करना मंत्रोच्चार-शक्ति के प्रमाण थे। दुर्भाग्यवश, जब शिव ने दक्ष के यज्ञ को विध्वंस कर दिया तो कुछ पशु भी मार डाले गये (एक का वध दक्ष के सिर लगाने के लिए हुआ था)। उनके शरीर बिखरे पड़े थे और यज्ञस्थल श्मशान भूमि बन गया था। फलत: यज्ञ का वास्तविक उद्देश्य समाप्त हो चुका था।
चूँकि भगवान् विष्णु को ही लक्ष्य बनाकर ऐसे यज्ञ किये जाते हैं, अत: याज्ञिकों की पत्नियों ने विष्णु से प्रार्थना की कि वे अहैतुकी कृपा द्वारा यज्ञस्थल पर एक दृष्टि तो डाल दें जिससे यज्ञ का कार्यक्रम प्रारम्भ किया जा सके। सारांश यह कि वृथा ही पशु-वध न किया जाय। वे मंत्र शक्ति के परीक्षण हेतु प्रयुक्त होते थे और उन्हें मंत्र के बल पर पुन: तरुण हो जाना था। उनका वध नहीं होना चाहिए था, जैसाकि शिव द्वारा दक्ष के सिर के स्थान पर पशु-सिर लगाने के लिए वध किया गया था। पशु की बलि होते और उसको पुन: तरुण होते देखना एक मनोहारी दृश्य होना था, किन्तु अब वैसा वातावरण नहीं रह गया था। अत: याज्ञिकों की पत्नियों ने विष्णु से प्रार्थना की कि वे अपनी कृपादृष्टि से पशुओं को जिलाएँ और यज्ञ को मनमोहक बनाएँ।
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