श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 7: दक्ष द्वारा यज्ञ सम्पन्न करना  »  श्लोक 37
 
 
श्लोक  4.7.37 
लोकपाला ऊचु:
द‍ृष्ट: किं नो द‍ृग्भिरसद्ग्रहैस्त्वं
प्रत्यग्द्रष्टा द‍ृश्यते येन विश्वम् ।
माया ह्येषा भवदीया हि भूमन्
यस्त्वं षष्ठ: पञ्चभिर्भासि भूतै: ॥ ३७ ॥
 
शब्दार्थ
लोक-पाला:—विभिन्न लोकों के प्रशासकों ने; ऊचु:—कहा; दृष्ट:—देखा हुआ; किम्—क्या; न:—हमारे द्वारा; दृग्भि:— इन्द्रियों सें; असत्-ग्रहै:—दृश्य जगत को प्रकट करने वाले; त्वम्—तुम; प्रत्यक्-द्रष्टा—आन्तरिक साक्षी; दृश्यते—देखा जाता है; येन—जिससे; विश्वम्—ब्रह्माण्ड; माया—भौतिक जगत; हि—क्योंकि; एषा—यह; भवदीया—आपकी; हि—निश्चय ही; भूमन्—हे ब्रह्माण्ड के स्वामी; य:—क्योंकि; त्वम्—तुम; षष्ठ:—छठवाँ; पञ्चभि:—पाँच; भासि—प्रकट होते हो; भूतै:— तत्त्वों से ।.
 
अनुवाद
 
 विभिन्न लोकों के लोकपालों ने इस प्रकार कहा : हे भगवन्, हम अपनी प्रत्यक्ष प्रतीति पर ही विश्वास करते हैं, किन्तु इस परिस्थिति में हम नहीं जानते कि हमने आपका दर्शन वास्तव में अपनी भौतिक इन्द्रियों से किया है अथवा नहीं। इन इन्द्रियों से तो हम दृश्य जगत को ही देख पाते हैं, किन्तु आप तो पाँच तत्त्वों के परे हैं। आप तो छठवें तत्त्व हैं। अत: हम आपको भौतिक जगत की सृष्टि के रूप में देख रहे हैं।
 
तात्पर्य
 विभिन्न लोकों के लोकपाल निश्चित रूप से ऐश्वर्यवान और अत्यन्त अभिमानी हैं। ऐसे लोग भगवान् के दिव्य-शाश्वत रूप को समझ पाने में असमर्थ होते हैं। ब्रह्म संहिता में कहा गया है कि जिन्होंने अपनी आँखों में ईश्वर-प्रेम रूपी अंजन लगा रखा है, वे लोग ही पद-पद पर भगवान् का दर्शन कर सकते हैं। यही नहीं, कुन्ती ने अपनी प्रार्थना में (भागवत १.८.२६) कहा है कि जो अकिञ्चन-गोचरम् हैं अर्थात् धन से फूले हुए नहीं रहते, वे ही भगवान् को देख सकते हैं; अन्य लोग मोहग्रस्त होने के कारण परम सत्य के विषय में सोच तक नहीं पाते।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥