महान् योगियों ने कहा : हे भगवान्, जो लोग यह जानते हुए कि आप समस्त जीवात्माओं के परमात्मा हैं, आपको अपने से अभिन्न देखते हैं, वे निश्चय ही आपको परम प्रिय हैं। जो आपको स्वामी तथा अपने आपको दास मानकर आपकी भक्ति में अनुरक्त रहते हैं, आप उन पर परम कृपालु रहते हैं। आप कृपावश उन पर सदैव हितकारी रहते हैं।
तात्पर्य
इस श्लोक से इंगित है कि एकेश्वरवादी तथा परम योगीजन एक ही भगवान् जानते हैं। यह एकत्व कोई भ्रान्ति नहीं है कि जीवात्मा सभी प्रकार से भगवान् के समान हैं। यह एकेश्वरवाद विशुद्ध ज्ञान पर आधारित है, जिसकी पुष्टि भगवद्गीता (७.१७) में हुई है—प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रिय:। भगवान् कहते हैं कि जो दिव्य ज्ञान में आगे बढ़े हुए हैं और कृष्णचेतना विज्ञान जानते हैं, वे ईश्वर को अत्यन्त प्रिय हैं और उन्हें भी ईश्वर अत्यन्त प्रिय हैं। जिन्हें ईश्वर विज्ञान का वास्तव में सम्यक् ज्ञान है, वे जानते हैं कि जीवात्माएँ परमेश्वर की परा शक्ति हैं। यहभगवद्गीता के सातवें अध्याय में कहा गया है—भौतिक शक्ति निम्न शक्ति है और जीवात्मा पराशक्ति है। शक्ति तथा शक्तिमान अभिन्न हैं, अत: शक्ति में वही गुण हैं, जो शक्तिमान में हैं। जो लोग भगवान् के पूर्ण ज्ञान से युक्त हैं, वे उनकी विभिन्न शक्तियों का विश्लेषण करके अपनी स्वाभाविक स्थिति को समझ लेते हैं और वे भगवान् को परम प्रिय हैं। किन्तु ऐसे व्यक्ति भी हैं, जो परमेश्वर के ज्ञान से भली-भाँति परिचित नहीं हैं, लेकिन उनके विषय में प्रेम तथा श्रद्धा से यह सोचते रहते हैं कि ईश्वर महान् है और वे उसके अंश रूप, नित्य दास हैं; वे उनके अधिक कृपापात्र होते हैं। इस श्लोक की विशिष्टता यह है कि इसमें भगवान् को वत्सल कहा गया है। वत्सल का अर्थ है, “सदैव अनुकूल होना।” भगवान् का नाम भक्तवत्सल है। भगवान् भक्तवत्सल के नाम से विख्यात हैं जिसका अर्थ यह हुआ कि वे भक्तों पर सदैव अनुकूल रहते हैं। उन्हें वैदिक साहित्य में कहीं भी ज्ञानी-वत्सल नहीं कहा गया।
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