जगत्—भौतिक जगत; उद्भव—सृष्टि; स्थिति—पालन; लयेषु—संहार में; दैवत:—भाग्य; बहु—अनेक; भिद्यमान—भिन्नता; गुणया—भौतिक गुणों के द्वारा; आत्म-मायया—अपनी भौतिक शक्ति से; रचित—उत्पन्न; आत्म—जीवात्माओं; भेद-मतये— भिन्न-भिन्न विचारों को उत्पन्न करने वाली भेदबुद्धि; स्व-संस्थया—अपनी अन्तरंगा शक्ति से; विनिवर्तित—रोका गया; भ्रम— बन्धन; गुण—भौतिक गुणों का; आत्मने—उनके साक्षात् रूप को; नम:—नमस्कार ।.
अनुवाद
हम उन परम पुरुष को सादर नमस्कार करते हैं जिन्होंने नाना प्रकार की वस्तुएँ उत्पन्न कीं और उन्हें भौतिक जगत के त्रिगुणों के वशीभूत कर दिया जिससे उनकी उत्पत्ति, स्थिति तथा संहार हो सके। वे स्वयं बहिरंगा शक्ति के अधीन नहीं हैं, वे साक्षात् रूप में भौतिक गुणों के विविध प्राकट्य से रहित हैं और मिथ्या मायामोह से दूर हैं।
तात्पर्य
इस श्लोक में दो स्थितियों का वर्णन है। एक तो भौतिक जगत की उत्पत्ति, स्थिति तथा प्रलय है और दूसरी है भगवान् की अपनी अवस्थिति। भगवान् के अपने धाम, अर्थात् अपने राज्य में भी गुण या विशेषता है। यहाँ पर कहा गया है कि उनका निजी स्थान गोलोक है। गोलोक में भी विशेषता है, लेकिन वह विशेषता उत्पत्ति, स्थिति तथा प्रलय में बँटी नहीं है। बाह्य शक्ति में तीनों गुणों की पारस्परिक क्रिया से वस्तुओं की उत्पत्ति, स्थिति तथा प्रलय होती हैं, किन्तु वैकुण्ठ जगत अर्थात् ईश्वर के राज्य में ऐसा नहीं होता क्योंकि वहाँ तो सब कुछ शाश्वत तथा आनन्दमय है। इस भौतिक जगत में पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के प्राकट्य को कुछ दार्शनिक ठीक से नहीं समझ पाते। उनका विचार है कि जब भगवान् प्रकट होते हैं, तो वे भी इस संसार के अन्य जीवात्माओं की तरह त्रिगुणों के वश में रहते हैं। यह उनका भ्रम है। यहाँ पर यह स्पष्ट कहा गया है (स्व-संस्थया) कि भगवान् अपनी अन्तरंगा शक्ति से इन भौतिक गुणों से अतीत हैं। इसी प्रकार भगवद्गीता में भी भगवान् कहते हैं “मैं अपनी अन्तरंगा शक्ति से प्रकट होता हूँ।” अन्तरंगा तथा बहिरंगा ये दोनों शक्तियाँ परम पुरुष के अधीन हैं, अत: वे दोनों में से किसी के वश में नहीं होते, अपितु सब कुछ उन्हीं के अधीन है। अपने नाम, रूप, गुण, लीला तथा साज-सामग्री को प्रकट करने के लिए ही वे अपनी अन्तरंगा शक्ति का प्रयोग करते हैं। बाह्यशक्ति की विविधता के कारण अनेक प्रकार के देवताओं का प्राकट्य होता है जिनमें सबसे पहले ब्रह्मा तथा शिव हुए और उन गुणात्मक देवताओं के भौतिक गुणों के अनुसार लोग उनकी ओर आकृष्ट होते हैं। किन्तु जब कोई भौतिक गुणों से ऊपर उठ जाता है, तो वह मात्र भगवान् की पूजा में स्थिर हो जाता है। इस तथ्य की व्याख्या भगवद्गीता में की गई है—जो भगवान् की सेवा में अनुरक्त है, वह पहले ही त्रिगुणों की विविधता तथा बन्धन से अतीत होता है। सारांश यह है कि भौतिक गुणों के कर्म तथा बन्धन द्वारा बद्धजीवों में खींचातानी लगी रहती है, जिससे शक्तियों में भिन्नता आती है। किन्तु आध्यात्मिक जगत में परमेश्वर ही एकमात्र पूज्य हैं।
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