पूषादेव अपने शिष्यों के दाँतों से चबायेंगे और यदि अकेले चाहें तो उन्हें सत्तू की बनी लोई खाकर सन्तुष्ट होना पड़ेगा। किन्तु जिन देवताओं ने मेरा यज्ञ-भाग देना स्वीकार कर लिया है वे सभी प्रकार की चोटों से स्वस्थ हो जाएँगे।
तात्पर्य
पूषादेव को चबाने के लिए अपने शिष्य पर निर्भर होना पड़ा, अन्यथा उसे चने के आटे की लोई खाने को मिलती। इस प्रकार उसका दण्ड चालू रहा। वह खाने के लिए अपने दाँतों का उपयोग नहीं कर सका, क्योंकि वह शिवजी पर हँसा था और उसने दाँत दिखा कर उनका मजाक उड़ाया था। दूसरे शब्दों में, शिव के विरुद्ध दाँतों का प्रयोग करने के कारण उसके दाँत न रहने देना ही श्रेयस्कर था।
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