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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 7: दक्ष द्वारा यज्ञ सम्पन्न करना  »  श्लोक 40
 
 
श्लोक  4.7.40 
ब्रह्मोवाच
नमस्ते श्रितसत्त्वाय धर्मादीनां च सूतये ।
निर्गुणाय च यत्काष्ठां नाहं वेदापरेऽपि च ॥ ४० ॥
 
शब्दार्थ
ब्रह्म—साक्षात् वेद ने; उवाच—कहा; नम:—सादर नमस्कार; ते—तुमको; श्रित-सत्त्वाय—सतोगुण के आश्रय; धर्म- आदीनाम्—समस्त धर्म तथा तपस्या; —तथा; सूतये—स्रोत; निर्गुणाय—भौतिक गुणों से परे; —तथा; यत्—जिसका (परमेश्वर का); काष्ठाम्—स्थिति; —नहीं; अहम्—मैं; वेद—जानता हूँ; अपरे—अन्य; अपि—निश्चय ही; —तथा ।.
 
अनुवाद
 
 साक्षात् वेदों ने कहा : हे भगवान्, हम आपको सादर नमस्कार करते हैं, क्योंकि आप सतोगुण के आश्रय होने के कारण समस्त धर्म तथा तपस्या के स्रोत हैं; आप समस्त भौतिक गुणों से परे हैं और कोई भी न तो आपको और न आपकी वास्तविक स्थिति को जानने वाला है।
 
तात्पर्य
 इस भौतिक जगत में तीन गुणों की त्रिवेणी है। भगवान् विष्णु ने सतोगुण के अधीक्षण का भार स्वीकार कर रखा है, जो धर्म, ज्ञान, तपस्या, त्याग, ऐश्वर्य आदि का स्रोत है। इसीलिए जब भौतिक जगत में जीवात्माएँ सतोगुण के अधीन होती हैं, तो वास्तविक शान्ति, समृद्धि, ज्ञान तथा धर्म की प्राप्ति होती है। किन्तु ज्योंही वे अन्य दो गुणों, रजो तथा तमो गुणों, के अधीन होती हैं कि उनकी बद्धजीवन की दशा असह्य हो उठती है। किन्तु भगवान् विष्णु अपनी आदि स्थिति में सदा निर्गुण हैं, अर्थात् इन तीन गुणों से परे हैं। निर्गुण का अर्थ है “गुण से रहित” किन्तु इससे यह नहीं सूचित होता कि भगवान् में गुण नहीं हैं। उनमें दिव्य गुण होते हैं जिनसे वे प्रकट होते और लीलाएँ करते हैं। दिव्यगुण का प्रकटीकरण न तो वेदविदों को ज्ञात है और न ही ब्रह्मा तथा शिव जैसे महान् देवताओं को। वस्तुत: ये दिव्यगुण केवल भक्तों के समक्ष प्रकट होते हैं। जैसाकि भगवद्गीता में पुष्टि की गई है केवल भक्ति करने से भगवान् की दिव्य स्थिति को समझा जा सकता है। जो सतोगुणी हैं, वे आंशिक रूप से दिव्य-ज्ञान में प्रवेश कर सकते हैं, किन्तु भगवद्गीता में उपदेश दिया गया है कि मनुष्य को इससे भी आगे जाना होता है। वैदिक नियम प्रकृति के तीन गुणों पर आधारित हैं। इन तीनों गुणों को पार करके ही शुद्ध तथा सरल आध्यात्मिक जीवन पाया जा सकता है।
 
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