ब्राह्मणा:—ब्राह्मणों ने; ऊचु:—कहा; त्वम्—तुम; क्रतु:—यज्ञ; त्वम्—तुम; हवि:—घी की आहुति; त्वम्—तुम; हुत- आश:—अग्नि; स्वयम्—साक्षात्; त्वम्—तुम; हि—क्योंकि; मन्त्र:—वैदिक मंत्र; समित्-दर्भ-पात्राणि—ईंधन, कुश तथा यज्ञ के पात्र; च—तथा; त्वम्—तुम; सदस्य—सभा के सदस्य; ऋत्विज:—पुरोहित; दम्पती—यजमान तथा उसकी पत्नी; देवता— देवता; अग्नि-होत्रम्—पवित्र अग्नि-उत्सव; स्वधा—पितरों की हवि; सोम:—सोम पादप; आज्यम्—घृत; पशु:—यज्ञ का पशु ।.
अनुवाद
ब्राह्मणों ने कहा : हे भगवान्, आप साक्षात् यज्ञ हैं। आप ही घृत की आहुति हैं; आप अग्नि हैं; आप वैदिक मंत्रों के उच्चारण हैं, जिनसे यज्ञ कराया जाता है; आप ईंधन हैं; आप ज्वाला हैं; आप कुश हैं और आप ही यज्ञ के पात्र हैं। आप यज्ञकर्ता पुरोहित हैं, इन्द्र आदि देवतागण आप ही हैं और आप यज्ञ-पशु हैं। जो कुछ भी यज्ञ में अर्पित किया जाता है, वह आप या आपकी शक्ति है।
तात्पर्य
इस कथन में भगवान् विष्णु की सर्वव्यापकता का आंशिक वर्णन हुआ है। विष्णु पुराण में कहा गया है कि जिस प्रकार अग्नि एक स्थान में रहकर अपनी उष्मा तथा प्रकाश को सर्वत्र फैलाती है, उसी प्रकार जो भी भौतिक या आध्यात्मिक लोकों में दिखाई पड़ता है, वह भगवान् की विभिन्न शक्तियों का प्राकट्य है। यहाँ पर सभी ब्राह्मण कह रहे हैं कि भगवान् विष्णु अग्नि, हवि, घृत, यज्ञ पात्र, यज्ञस्थल तथा कुश सभी कुछ हैं। यहाँ पर इसकी पुष्टि हुई है कि इस युग में संकीर्तन यज्ञ अन्य कालों में किये गये अन्य समस्त यज्ञों के समान ही उत्तम है। यदि कोई हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण, हरे हरे, हरे राम, हरे राम, राम राम, हरे हरे, मंत्र का जाप करते हुए संकीर्तन यज्ञ करता है, तो वेदों में वर्णित यज्ञ-उत्सव के लिए तमाम सामग्री का विशाल आयोजन वृथा है। हरे कृष्ण संकीर्तन में हरे का अर्थ है कृष्ण की शक्ति और कृष्ण का अर्थ है विष्णुतत्त्व। दोनों मिलकर सब कुछ बन जाते हैं। इस युग में सारे मनुष्य कलियुग के प्रभाव से पीडि़त हैं और वे यज्ञ करने के लिए वेदों में उल्ल्खित समस्त सामग्री का प्रबन्ध नहीं कर सकते। किन्तु यदि कोई केवल हरे कृष्ण का जप करता है, तो यह समझा जाता है कि वह सभी प्रकार के यज्ञ कर रहा है, क्योंकि हमारी दृष्टि में हरे (कृष्ण की शक्ति) तथा कृष्ण के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। कृष्ण तथा उनकी शक्ति के बीच कोई अन्तर नहीं। इस प्रकार क्योंकि हर एक वस्तु में उनकी शक्ति का प्रदर्शन है, अत: यह समझना चाहिए कि हर वस्तु कृष्ण है। मनुष्य को कृष्णभावनाभावित होकर प्रत्येक वस्तु स्वीकार करनी बनेगा, तभी वह मुक्त पुरुष होगा। उसे यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि प्रत्येक वस्तु कृष्ण है, अत: कृष्ण का कोई व्यक्तिगत स्वरूप नहीं है। कृष्ण इतने पूर्ण हैं कि यदि उन्हें अपनी शक्ति द्वारा प्रत्येक वस्तु से पृथक् रखे जाने पर भी वे सबकुछ हैं। इसकी पुष्टि भगवद्गीता के नवें अध्याय में की गई है। वे सृष्टि भर में प्रत्येक वस्तु के रूप में विस्तीर्ण हैं, फिर भी वे प्रत्येक वस्तु नहीं हैं। भगवान् चैतन्य द्वारा संस्तुत दर्शन कहता है कि वे एक ही साथ एक और भिन्न-भिन्न हैं।
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