हे भगवान्, हे साक्षात् वैदिक ज्ञान, अत्यन्त पुरातन काल पहले, पिछले युग में जब आप महान् सूकर अवतार के रूप में प्रकट हुए थे तो आपने पृथ्वी को जल के भीतर से इस प्रकार ऊपर उठा लिया था जिस प्रकार कोई हाथी सरोवर में से कमलिनी को उठा लाता है। जब आपने उस विराट सूकर रूप में दिव्य गर्जन किया, तो उस ध्वनि को यज्ञ मंत्र के रूप में स्वीकार कर लिया गया और सनक जैसे महान् ऋषियों ने उसका ध्यान करते हुए आपकी स्तुति की।
तात्पर्य
इस श्लोक में एक महत्त्वपूर्ण शब्द त्रयीगात्र आया है, जिसका अर्थ है कि भगवान् का दिव्य रूप वेद हैं। जो कोई भगवान् के अर्चाविग्रह या रूप की पूजा मन्दिर में करता है, तो यह समझा जाता है कि वह चौबीसों घंटे वेदों का पाठ करता है। यदि कोई मन्दिर में भगवान् अर्थात् राधा तथा कृष्ण की मूर्तियों को अलंकृत करता है, तो वह अत्यन्त सूक्ष्मता के साथ वैदिक आदेशों का अध्ययन करता होता है। यहाँ तक कि नवदीक्षित भक्त भी, जो अर्चा-विग्रह की पूजा में अपने को लगाता है, वैदिक ज्ञान के सारभाग के सम्पर्क में रहता समझा जाता है। जैसाकि भगवद्गीता (१५.१५) में पुष्टि हुई है—वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्य:—वेदों का तात्पर्य कृष्ण को समझना है। जो कृष्ण की पूजा तथा सेवा करता है, वह वेदों के सत्य को जानता है।
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