मैत्रेय ने आगे कहा : हे पापमुक्त विदुर, भगवान् विष्णु ही वास्तव में समस्त यज्ञों के फल के भोक्ता हैं। फिर भी समस्त जीवात्माओं के परमात्मा होने से वे अपना यज्ञ-भाग प्राप्त हो जाने से प्रसन्न हो गये, अत: उन्होंने प्रमुदित भाव से दक्ष को सम्बोधित किया।
तात्पर्य
भगवद्गीता (५.२९) में कहा गया है—भोक्तांर यज्ञ तपसाम्—भगवान् विष्णु अथवा कृष्ण यज्ञ तथा तप के समस्त फलों के परमभोक्ता हैं। इनमें से कोई भी अपने को चाहे जिसमें प्रवृत्त करे, अन्तिम लक्ष्य तो विष्णु ही होता है। यदि कोई यह नहीं जानता है, तो वह पथच्युत है। भगवान् होने के कारण विष्णु को किसी से कुछ नहीं चाहिए। वे आत्म-तुष्ट, आत्म-निर्भर हैं, किन्तु वे यज्ञ की भेंट इसलिए स्वीकार करते हैं, क्योंकि वे समस्त जीवों के प्रति मैत्री-भाव रखने वाले हैं। जब उन्हें उनका यज्ञ-भाग प्राप्त हो गया तो वे परम प्रसन्न दिखे। भगवद्गीता (९.२६) में कहा गया है—पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति—यदि कोई भक्त भगवान को केवल पत्र, पुष्प या जल अर्पित करता है और यदि यह प्रेम और श्रद्धा के साथ अर्पित किया जाता है, तो भगवान् उसे स्वीकार करते हैं और प्रसन्न हो जाते हैं। यद्यपि वे आत्म-निर्भर हैं और उन्हें किसी से कुछ नहीं चाहिए, किन्तु वे ऐसी भेंटें स्वीकार करते हैं, क्योंकि परमात्मा होने के कारण समस्त जीवात्माओं के प्रति उनका मैत्री-भाव रहता है। दूसरी बात यह है कि वे किसी दूसरे के भाग को नहीं हड़पते। यज्ञ में शिव, ब्रह्मा तथा अन्य देवताओं का भाग होता है और भगवान् विष्णु का भी एक भाग होता है। वे अपने भाग से ही संतुष्ट रहते हैं और किसी अन्य का भाग नहीं हड़पते। अप्रत्यक्ष रूप में, उन्होंने दक्ष को यह बता दिया कि वे शिव का भाग उन्हें न दिये जाने से सन्तुष्ट नहीं थे। मैत्रेय ने विदुर को पापहीन कहा है क्योंकि विदुर शुद्ध वैष्णव थे और उन्होंने किसी भी देवता के प्रति कोई अपराध नहीं किया था। यद्यपि वैष्णव विष्णु को ही परम मानते हैं, किन्तु वे अन्य देवताओं का अपमान नहीं करते। वे देवताओं का समुचित आदर करते हैं। वैष्णवजन शिव को सर्वश्रेष्ठ वैष्णव मानते हैं। वैष्णवों के द्वारा किसी भी देवता के अपमानित होने की सम्भावना नहीं रहती और देवता भी वैष्णवों से प्रसन्न रहते हैं क्योंकि वे भगवान् विष्णु के दोषहीन भक्त होते हैं।
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