श्रीमद् भागवतम
 
हिंदी में पढ़े और सुनें
भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 7: दक्ष द्वारा यज्ञ सम्पन्न करना  »  श्लोक 52
 
 
श्लोक  4.7.52 
तस्मिन् ब्रह्मण्यद्वितीये केवले परमात्मनि ।
ब्रह्मरुद्रौ च भूतानि भेदेनाज्ञोऽनुपश्यति ॥ ५२ ॥
 
शब्दार्थ
तस्मिन्—उसको; ब्रह्मणि—परब्रह्म; अद्वितीये—अद्वितीय; केवले—अकेला; परम-आत्मनि—परमात्मा; ब्रह्म-रुद्रौ—ब्रह्मा तथा शिव दोनों; च—तथा; भूतानि—जीवात्माएँ; भेदेन—विलगाव से; अज्ञ:—नादान, अज्ञानी; अनुपश्यति—सोचता है ।.
 
अनुवाद
 
 भगवान् ने आगे कहा : जिसे समुचित ज्ञान प्राप्त नहीं है, वह ब्रह्मा तथा शिव जैसे देवताओं को स्वतंत्र समझता है या वह यह भी सोचता है कि जीवात्माएँ भी स्वतंत्र हैं।
 
तात्पर्य
 ब्रह्मा समेत सभी जीवात्माएँ स्वतंत्र रूप से पृथक् नहीं हैं, वरन् इन्हें परमेश्वर की तटस्था शक्ति के अन्तर्गत माना जाता है। प्रत्येक जीवात्मा का, जिसमें ब्रह्मा तथा शिव भी सम्मिलित हैं, परमात्मा होने के कारण परमेश्वर त्रिगुणात्मक कार्यों में सबों को निर्देशित करता है। कोई भी जीव उनकी स्वीकृति के बिना स्वतंत्र रूप से कोई कार्य नहीं कर सकता, और अप्रत्यक्षत: कोई भी जीव परमेश्वर से भिन्न नहीं है यहाँ तक कि ब्रह्मा और रुद्र भी नहीं, जो भौतिक प्रकृति के क्रमश: रजो तथा तमो गुणों के अवतार हैं।
 
शेयर करें
       
 
  All glories to Srila Prabhupada. All glories to वैष्णव भक्त-वृंद
  Disclaimer: copyrights reserved to BBT India and BBT Intl.

 
About Us | Terms & Conditions
Privacy Policy | Refund Policy
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥