श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 7: दक्ष द्वारा यज्ञ सम्पन्न करना  »  श्लोक 54
 
 
श्लोक  4.7.54 
त्रयाणामेकभावानां यो न पश्यति वै भिदाम् ।
सर्वभूतात्मनां ब्रह्मन् स शान्तिमधिगच्छति ॥ ५४ ॥
 
शब्दार्थ
त्रयाणाम्—तीनों का; एक-भावानाम्—एक ही स्वभाव वाले; य:—जो; न पश्यति—नहीं देखता; वै—निश्चय ही; भिदाम्— पृथक्ता; सर्व-भूत-आत्मनाम्—समस्त जीवात्माओं के परमात्मा का; ब्रह्मन्—हे दक्ष; स:—वह; शान्तिम्—शान्ति; अधिगच्छति—प्राप्त करता है ।.
 
अनुवाद
 
 भगवान् ने आगे कहा : जो मनुष्य ब्रह्मा, विष्णु, शिव या जीवात्माओं को परब्रह्म से पृथक् नहीं मानता और ब्रह्म को जानता है, वही वास्तव में शान्ति प्राप्त करता है, अन्य नहीं।
 
तात्पर्य
 इस श्लोक में दो शब्द अत्यत महत्त्वपूर्ण हैं। त्रयाणाम् ‘तीन’ का सूचक है, जिसमें ब्रह्मा, शिव तथा विष्णु सम्मिलित हैं। भिदाम् का अर्थ है “पृथक्।” वे तीन हैं, अत: पृथक्-पृथक् हैं, किन्तु साथ ही वे तीनों एक हैं। यह एक साथ एकत्व तथा पृथकत्व का दर्शन है, जो अचिन्त्य भेदाभेद-तत्त्व कहलाता है। ब्रह्म संहिता में उदाहरण दिया गया है कि दूध तथा मट्ठा एक ही साथ एक तथा भिन्न हैं—दोनों दूध हैं, किन्तु मट्ठा बदल गया है। वास्तविक शान्ति प्राप्त करने के लिए मनुष्य को चाहिए कि प्रत्येक वस्तु तथा प्रत्येक जीवात्मा को, जिसमें ब्रह्मा तथा शिव भी सम्मिलित हैं, भगवान् से अभिन्न माने। कोई स्वतंत्र नहीं है। हममें से हर एक भगवान् का विस्तार है। इसीसे विविधता में एकता सिद्ध है। यद्यपि अवतार अनेक होते हैं, किन्तु साथ ही वे विष्णु के ही हैं। प्रत्येक वस्तु विष्णु की शक्ति का विस्तार है।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥