श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 7: दक्ष द्वारा यज्ञ सम्पन्न करना  »  श्लोक 61
 
 
श्लोक  4.7.61 
इदं पवित्रं परमीशचेष्टितं
यशस्यमायुष्यमघौघमर्षणम् ।
यो नित्यदाकर्ण्य नरोऽनुकीर्तयेद्
धुनोत्यघं कौरव भक्तिभावत: ॥ ६१ ॥
 
शब्दार्थ
इदम्—यह; पवित्रम्—शुद्ध; परम्—परम; ईश-चेष्टितम्—परमेश्वर की लीलाएँ; यशस्यम्—यश; आयुष्यम्—दीर्घ जीवनकाल; अघ-ओघ-मर्षणम्—पापों का विनाश; य:—जो; नित्यदा—सदैव; आकर्ण्य—सुनकर; नर:—मनुष्य; अनुकीर्तयेत्—सुनावे; धुनोति—धो देता है; अघम्—भौतिक दूषण; कौरव—हे कुरुवंशी; भक्ति-भावत:—श्रद्धा तथा भक्ति के साथ ।.
 
अनुवाद
 
 मैत्रेय मुनि ने अन्त में कहा : हे कुरुनन्दन, यदि कोई भगवान् विष्णु द्वारा संचालित दक्ष-यज्ञ की यह कथा श्रद्धा एवं भक्ति के साथ सुनता है और इसे फिर से सुनाता है, तो वह निश्चय ही इस संसार के समस्त कल्मष से विमल हो जाता है।
 
 
इस प्रकार श्रीमद्भागवत के चतुर्थ स्कन्ध के अन्तर्गत “दक्ष द्वारा यज्ञ की समाप्ति” नामक सातवें अध्याय के भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुए।
 
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥