मैत्रेय ऋषि ने कहा : सनकादि चारों कुमार और नारद, ऋभु, हंस, अरुणि तथा यति— ब्रह्मा के ये सारे पुत्र घर पर न रहकर (गृहस्थ नहीं बने) नैष्ठिक ब्रह्मचारी हुए।
तात्पर्य
ब्रह्मा के जन्म काल से ही ब्रह्मचर्य प्रणाली चली आ रही है। जनसंख्या का एक भाग, विशेष रूप से पुरुष, ब्याह नहीं करता था। ऐसे पुरुष वीर्य का स्खलन न करके उसे मस्तिष्क की ओर ले जाते थे। वे ऊर्ध्वरेतस: अर्थात् ऊपर उठाने वाले कहलाते हैं। वीर्य इतना महत्त्वपूर्ण है कि यदि कोई इसे योग द्वारा मस्तिष्क तक ले सकता है, तो वह अद्भुत कार्य कर सकता है—यथा स्मरणशक्ति अत्यन्त तीव्र हो जाती है और आयु बढ़ जाती है। इस प्रकार से योगी सभी प्रकार की तपस्याएँ अधिक स्थिरता से कर सकते हैं और सर्वोच्च सिद्धावस्था को, यहाँ तक कि वैकुण्ठ लोक को, प्राप्त कर सकते हैं। इस प्रकार ब्रह्मचर्य-जीवन बिताने वालों के ज्वलन्त उदाहरण हैं—सनक, सनन्दन, सनातन तथा सनत्कुमार नामक चार मुनि, और नारद तथा अन्य।
यहाँ अन्य महत्त्वपूर्ण पदांश है—नैते गृहान् ह्यावसन्—“वे घर में नहीं रहे।” गृह का अर्थ ‘घर’ तथा ‘पत्नी’ दोनों होता है। वस्तुत: ‘घर’ का अर्थ है गृहिणी या पत्नी। इसका अर्थ ईंट-पत्थर का बना घर नहीं। जो अपनी पत्नी के साथ रहता है, वह घर में ही रहता है, अन्यथा ब्रह्मचारी या संन्यासी तो घर में रहता ही नहीं, भले ही वह किसी घर के कमरे में रहे। “वे घर में नहीं रहे” का अर्थ है कि उन्होंने पत्नी स्वीकार नहीं की, अत: उनके वीर्यपात का प्रश्न ही नहीं उठता। वीर्य का पात तभी होता है जब घर हो, पत्नी हो और सन्तान उत्पन्न करने की अभिलाषा हो, अन्यथा वीर्यस्खलन आवश्यक नहीं। इन नियमों का सृष्टि के आदि काल से पालन होता रहा है और ऐसे ब्रह्मचारियों ने कभी भी सन्तान उत्पन्न नहीं की। यह आख्यान मनु की पुत्री प्रसूति से उत्पन्न ब्रह्मा के वंशजों के विषय में था। प्रसूति की पुत्री दाक्षायणी अथवा सती थी जिसके विषय में दक्ष यज्ञ की कथा कही गई। मैत्रेय अब ब्रह्मा के पुत्रों की सन्तति के विषय में बता रहे हैं। ब्रह्मा के अनेक पुत्रों में से सनकादि ब्रह्मचारी थे तथा नारद ने ब्याह नहीं किया, अत: इनकी संततियों के इतिहास के वर्णन का प्रश्न ही नहीं उठता।
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