श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 8: ध्रुव महाराज का गृहत्याग और वनगमन  »  श्लोक 10
 
 
श्लोक  4.8.10 
तथा चिकीर्षमाणं तं सपत्‍न्यास्तनयं ध्रुवम् ।
सुरुचि: श‍ृण्वतो राज्ञ: सेर्ष्यमाहातिगर्विता ॥ १० ॥
 
शब्दार्थ
तथा—इस प्रकार; चिकीर्षमाणम्—चढऩे के लिए प्रयत्नशील बालक ध्रुव; तम्—उस; स-पत्न्या:—अपनी सौत (सुनीति) का; तनयम्—पुत्र; ध्रुवम्—ध्रुव को; सुरुचि:—सुरुचि ने; शृण्वत:—सुनता हुआ; राज्ञ:—राजा का; स-ईर्ष्यम्—ईष्या से; आह— कहा; अतिगर्विता—अत्यन्त घमण्ड से भरी ।.
 
अनुवाद
 
 जब बालक ध्रुव महाराज अपने पिता की गोद में जाने का प्रयत्न कर रहे थे तो उसकी विमाता सुरुचि को उस बालक से अत्यन्त ईर्ष्या हुई और वह अत्यन्त दम्भ के साथ इस प्रकार बोलने लगी जिससे कि राजा सुन सके।
 
तात्पर्य
 निस्सन्देह, राजा अपने दोनों पुत्रों के प्रति समान स्नेहिल थे, अत: वे ध्रुव तथा उत्तम दोनों को गोद में लेने के लिए स्वाभाविक रूप से उन्मुख थे। किन्तु अपनी रानी सुरुचि के प्रति पक्षपात के कारण वे चाहते हुए भी ध्रुव महाराज को दुलार न दे सके। सुरुचि ने राजा उत्तानपाद के भावों को भाँप लिया, अत: वह अपने प्रति राजा के प्रेम का अत्यन्त दम्भपूर्वक बखान करने लगी। यही स्त्री स्वभाव है। यदि स्त्री जान लेती है कि उसका पति उसका पक्ष लेता है और उसके प्रति विशेष लगाव रखता है, तो वह अनाधिकार लाभ उठाती है। ये लक्षण स्वायंभुव मनु जैसे परिवार के उच्चस्थ समाज में भी परिलक्षित होते हैं। अत: यह निष्कर्ष निकला कि स्त्री का स्त्रीत्व-गुण सर्वत्र विद्यमान है।
 
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