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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 8: ध्रुव महाराज का गृहत्याग और वनगमन  »  श्लोक 13
 
 
श्लोक  4.8.13 
तपसाराध्य पुरुषं तस्यैवानुग्रहेण मे ।
गर्भे त्वं साधयात्मानं यदीच्छसि नृपासनम् ॥ १३ ॥
 
शब्दार्थ
तपसा—तपस्या से; आराध्य—सन्तुष्ट करके; पुरुषम्—भगवान्; तस्य—उसकी; एव—केवल; अनुग्रहेण—कृपा से; मे—मेरे; गर्भे—गर्भ में; त्वम्—तुम; साधय—प्रस्थापित करो; आत्मानम्—अपने को; यदि—यदि; इच्छसि—चाहते हो; नृप- आसनम्—राजा के सिंहासन पर ।.
 
अनुवाद
 
 यदि तुम राजसिंहासन पर बैठना चाहते हो तो तुम्हें कठिन तपस्या करनी होगी। सर्वप्रथम तुम्हें भगवान् नारायण को प्रसन्न करना होगा और वे तुम्हारी पूजा से प्रसन्न हो लें तो तुम्हें अगला जन्म मेरे गर्भ से लेना होगा।
 
तात्पर्य
 सुरुचि ध्रुव महाराज से इतनी ईर्ष्यालु थी कि उसने अप्रत्यक्ष रूप से उनसे अपना शरीर बदल लेने के लिए कहा। उसके अनुसार, पहले उन्हें मरना होगा तब अगले जन्म में वे उसके गर्भ में शरीर धारण करेंगे। तभी ध्रुव महाराज अपने पिता के सिंहासन पर बैठ सकेंगे।
 
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