सा—वह; उत्सृज्य—छोडक़र; धैर्यम्—धैर्य, ढाढस; विललाप—विलाप करने लगी; शोक-दाव-अग्निना—शोक की अग्नि से; दाव-लता इव—जली हुई पत्तियों के समान; बाला—स्त्री; वाक्यम्—शब्द; स-पत्न्या:—अपनी सौत द्वारा कहे; स्मरती— स्मरण करती; सरोज-श्रिया—कमल के समान सुन्दर मुख; दृशा—देखते हुए; बाष्प-कलाम्—रोते हुए; उवाह—कहा ।.
अनुवाद
यह घटना सुनीति के लिए असह्य थी। वह मानो दावाग्नि में जल रही थी और शोक के कारण वह जली हुई पत्ती (बेलि) के समान हो गई और पश्चात्ताप करने लगी। अपनी सौत के शब्द स्मरण होने से उसका कमल जैसा सुन्दर मुख आँसुओं से भर गया और वह इस प्रकार बोली।
तात्पर्य
जब मनुष्य दुखी होता है, तो वह अपने को जंगल की अग्नि से जले पत्ते के समान अनुभव करता है। ऐसी ही सुनीति की स्थिति हो गई थी। यद्यपि सुनीति का मुख कमल के समान सुन्दर था, किन्तु अपनी सौत के कटु वचनों से उत्पन्न अग्नि से वह मुरझा गया।
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