श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 8: ध्रुव महाराज का गृहत्याग और वनगमन  »  श्लोक 17
 
 
श्लोक  4.8.17 
दीर्घं श्वसन्ती वृजिनस्य पार-
मपश्यती बालकमाह बाला ।
मामङ्गलं तात परेषु मंस्था
भुङ्क्ते जनो यत्परदु:खदस्तत् ॥ १७ ॥
 
शब्दार्थ
दीर्घम्—अत्यधिक; श्वसन्ती—साँस लेती हुई; वृजिनस्य—संकट की; पारम्—सीमा; अपश्यती—बिना पाये; बालकम्—अपने पुत्र से; आह—कहा; बाला—स्त्री ने; मा—मत; अमङ्गलम्—अशकुन; तात—मेरे पुत्र; परेषु—अन्यों को; मंस्था:—कामना; भुङ्क्ते—भोग करता है; जन:—व्यक्ति; यत्—जो; पर-दु:खद:—जो दूसरों को पीड़ा पहुँचाए; तत्—वह ।.
 
अनुवाद
 
 वह तेजी से साँस भी ले रही थी और वह इस दुखद स्थिति का कोई इलाज ठीक नहीं ढूँढ पा रही थी। अत: उसने अपने पुत्र से कहा : हे पुत्र, तुम अन्यों के अमंगल की कामना मत करो। जो भी दूसरों को कष्ट पहुँचाता है, वह स्वयं दुख भोगता है।
 
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥