श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 8: ध्रुव महाराज का गृहत्याग और वनगमन  »  श्लोक 19
 
 
श्लोक  4.8.19 
आतिष्ठ तत्तात विमत्सरस्त्वम्
उक्तं समात्रापि यदव्यलीकम् ।
आराधयाधोक्षजपादपद्मं
यदीच्छसेऽध्यासनमुत्तमो यथा ॥ १९ ॥
 
शब्दार्थ
आतिष्ठ—पालन करो; तत्—वही; तात—प्रिय पुत्र; विमत्सर:—बिना ईर्ष्या के; त्वम्—तुमको; उक्तम्—कहा गया; समात्रा अपि—तुम्हारी विमाता द्वारा; यत्—जो कुछ; अव्यलीकम्—वे सत्य हैं; आराधय—आराधना प्रारम्भ करो; अधोक्षज—सत्त्व, दिव्य पुरुष; पाद-पद्मम्—चरणकमल; यदि—यदि; इच्छसे—चाहते हो; अध्यासनम्—आसन ग्रहण करना; उत्तम:—अपने सौतेले भाई उत्तम के साथ; यथा—जिस प्रकार ।.
 
अनुवाद
 
 प्रिय पुत्र, तुम्हारी विमाता सुरुचि ने जो कुछ कहा है, यद्यपि वह सुनने में कटु है, किन्तु है सत्य। अत: यदि तुम उसी सिंहासन पर बैठना चाहते हो जिसमें तुम्हारा सौतेला भाई उत्तम बैठेगा तो तुम अपना ईर्ष्याभाव त्याग कर तुरन्त अपनी विमाता के आदेशों का पालन करो। तुम्हें बिना किसी विलम्ब के पुरुषोत्तम भगवान् के चरण-कमलों की पूजा में लग जाना चाहिए।
 
तात्पर्य
 सुरुचि ने अपने सौतेले पुत्र के प्रति जो कटु वचन कहे थे, वे सत्य थे, क्योंकि जब तक किसी पर भगवान् की कृपा नहीं होती, तब तक उसे जीवन में कोई सफलता नहीं मिल पाती। ‘आपन सोची होवत नहीं प्रभु सोची तत्काल’। ध्रुव महाराज की माता सुनीति अपनी सौत के इस उपदेश से एकमत थी कि ध्रुव भगवान् की पूजा में अपने को प्रवृत्त करे। परोक्षत: सुरुचि के शब्द ध्रुव महाराज के लिए वरदान सिद्ध हुए, क्योंकि अपनी विमाता के वचनों से प्रभावित होकर ही वे एक महान् भक्त बने।
 
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