तथा मनुर्वो भगवान् पितामहो
यमेकमत्या पुरुदक्षिणैर्मखै: ।
इष्ट्वाभिपेदे दुरवापमन्यतो
भौमं सुखं दिव्यमथापवर्ग्यम् ॥ २१ ॥
शब्दार्थ
तथा—उसी प्रकार; मनु:—स्वायंभुव मनु; व:—तुम्हारे; भगवान्—पूज्य; पितामह:—दादा (बाबा); यम्—जिनको; एक- मत्या—एकनिष्ठ सेवा से; पुरु—महान; दक्षिणै:—दान से; मखै:—यज्ञ करने से; इष्ट्वा—पूजा करके; अभिपेदे—प्राप्त किया; दुरवापम्—दुष्प्राप्य; अन्यत:—किसी अन्य साधन से; भौमम्—भौतिक; सुखम्—सुख; दिव्यम्—नैसर्गिक; अथ—तत्पश्चात्; आपवर्ग्यम्—मुक्ति ।.
अनुवाद
सुनीति ने अपने पुत्र को बताया : तुम्हारे बाबा स्वायंभुव मनु ने दान-दक्षिणा के साथ बड़े बड़े यज्ञ सम्पन्न किये और एकनिष्ठ श्रद्धा तथा भक्ति से उन्होंने पूजा द्वारा भगवान् को प्रसन्न किया। इस प्रकार उन्होंने भौतिक सुख तथा बाद में मुक्ति प्राप्त करने में महान् सफलता पाई जिसे देवताओं को पूजकर प्राप्त कर पाना असंभव है।
तात्पर्य
जीवन की सफलता का मापन इस जन्म में भौतिक सुख तथा अगले जन्म में मोक्ष प्राप्ति के द्वारा की जाती है। ऐसी सफलता भगवान् की कृपा से ही सम्भव है। यहाँ पर प्रयुक्त एकमत्या शब्द का अर्थ है अविचलित भाव से भगवान् में मन केन्द्रित करना। भगवान् की ऐसी अविचल पूजा भगवद्गीता में अनन्यभाक् के रूप में अभिव्यक्त हुई है। “जो किसी अन्य स्रोत से अप्राप्य है” यह भी यहाँ कहा गया है। यहाँ पर ‘अन्य स्रोत’ अन्यत: का आशय देवताओं की पूजा है। यहाँ पर यह भी विशेष उल्लेख है कि मनु का वैभव भगवान् की दिव्य सेवा में उनकी अविचल श्रद्धा के कारण था। जो भौतिक सुख की प्राप्ति के लिए अन्य देवताओं की पूजा में अपने मन को इधर-उधर ले जाता है, वह बुद्धिविहीन समझा जाता है। यदि किसी को भौतिक सुख भी चाहिए तो भी वह अविचल भाव से परमेश्वर की पूजा कर सकता है और जो मुक्तिकामी है, वह भी उनकी पूजा करके अपना जीवन-लक्ष्य प्राप्त कर सकता है।
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