श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 8: ध्रुव महाराज का गृहत्याग और वनगमन  »  श्लोक 22
 
 
श्लोक  4.8.22 
तमेव वत्साश्रय भृत्यवत्सलं
मुमुक्षुभिर्मृग्यपदाब्जपद्धतिम् ।
अनन्यभावे निजधर्मभाविते
मनस्यवस्थाप्य भजस्व पूरुषम् ॥ २२ ॥
 
शब्दार्थ
तम्—उसको; एव—भी; वत्स—मेरे पुत्र; आश्रय—शरण ग्रहण करो; भृत्य-वत्सलम्—भगवान् की, जो अपने भक्तों पर अत्यन्त कृपालु हैं; मुमुक्षुभि:—जो मुक्ति की इच्छा रखने वाले हैं, वे भी; मृग्य—खोजे जाकर; पद-अब्ज—चरणकमल; पद्धतिम्—प्रणाली; अनन्य-भावे—एकान्त भाव में; निज-धर्म-भाविते—अपने मूल स्वाभाविक पद पर स्थित; मनसि—मन को; अवस्थाप्य—रखकर; भजस्व—भक्ति करते रहो; पूरुषम्—परम पुरुष ।.
 
अनुवाद
 
 मेरे पुत्र, तुम्हें भी भगवान् की शरण ग्रहण करनी चाहिए, क्योंकि वे अपने भक्तों पर अत्यन्त दयालु हैं। जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति चाहने वाले व्यक्ति सदैव भक्ति सहित भगवान् के चरणकमलों की शरण में जाते हैं। अपना निर्दिष्ट कार्य करके पवित्र होकर तुम अपने हृदय में भगवान् को स्थिर करो और एक पल भी विचलित हुए बिना उनकी सेवा में तन्मय रहो।
 
तात्पर्य
 सुनीति ने अपने पुत्र को जो भक्तियोग की पद्धति बताई वह भगवत्-साक्षात्कार की आदर्श विधि है। प्रत्येक व्यक्ति अपना स्वाभाविक वृत्तिपरक-कार्य करता हुआ उसी के साथ ही अपने हृदय में भगवान् को बसाये रख सकता है। स्वयं भगवान् ने भगवद्गीता में भी अर्जुन को यही उपदेश दिया था, “लड़ते रहो और मन में मुझे धारण किये रहो।” कृष्णचेतना में सिद्धि चाहने वाले प्रत्येक निष्ठावान व्यक्ति का यही आदर्श होना चाहिए। इस प्रसंग में रानी सुनीति ने अपने पुत्र को उपदेश दिया कि भगवान् भृत्यवत्सल कहलाते हैं, अर्थात् वे अपने भक्तों पर अत्यन्त दयालु हैं। उसने कहा “तुम अपनी विमाता से अपमानित होकर रोते हुए मेरे पास आये हो, किन्तु मैं तुम्हारा भला नहीं कर सकती। किन्तु कृष्ण अपने भक्तों पर इतने दयालु हैं कि यदि तुम उनके पास जाओगे तो उनकी वत्सलता तथा उनका मृदु व्यवहार मुझ जैसी लाख-लाख माताओं से भी बढक़र होगा।” जब कोई दूसरा किसी का दुख घटा पाने में असमर्थ रहता है, तो श्रीकृष्ण ही भक्त की सहायता करते हैं। सुनीति ने इस पर भी बल दिया कि भगवान् तक पहुँचने की क्रिया सरल नहीं, वरन् आध्यात्मिकता में बढ़े-चढ़े ऋषि तक इसकी खोज में रहते हैं। सुनीति ने यह भी बताया कि ध्रुव महाराज अभी पाँच वर्ष के छोटे बालक हैं, अत: कर्मकाण्ड द्वारा अपने आपको शुद्ध कर पाना उनके लिए सम्भव नहीं है। किन्तु भक्तियोग की विधि से पाँच वर्ष से भी कम आयु का बालक या किसी भी उम्र का व्यक्ति शुद्ध हो सकता है। भक्तियोग की यही विशिष्ट महत्ता है। अत: उसने उन्हें देवताओं की या अन्य किसी विधि की पूजा करने की सलाह नहीं दी, उन्हें केवल भगवान् की शरण में जाने को कहा, जिससे सिद्धि प्राप्त हो सके। ज्योंही मनुष्य अपने हृदय में भगवान् को बसा लेता है, हर काम सरल हो जाता है और सफलता मिलती है।
 
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