श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 8: ध्रुव महाराज का गृहत्याग और वनगमन  »  श्लोक 23
 
 
श्लोक  4.8.23 
नान्यं तत: पद्मपलाशलोचनाद्
दु:खच्छिदं ते मृगयामि कञ्चन ।
यो मृग्यते हस्तगृहीतपद्मया
श्रियेतरैरङ्ग विमृग्यमाणया ॥ २३ ॥
 
शब्दार्थ
न अन्यम्—दूसरे नहीं; तत:—अत:; पद्म-पलाश-लोचनात्—कमल नेत्र वाले भगवान् से; दु:ख-छिदम्—अन्यों के कष्टों को कम करने वाला; ते—तुम्हारा; मृगयामि—खोज में हूँ; कञ्चन—अन्य कोई; य:—जो; मृग्यते—ढूँढता है; हस्त-गृहीत पद्मया—हाथ में कमल पुष्प लेकर; श्रिया—सम्पत्ति की देवी; इतरै:—अन्यों से; अङ्ग—मेरे पुत्र; विमृग्यमाणया—पूजित ।.
 
अनुवाद
 
 हे प्रिय ध्रुव, कमल के दलों जैसे नेत्रों वाले भगवान् के अतिरिक्त मुझे कोई ऐसा नहीं दिखता जो तुम्हारे दुखों को कम कर सके। ब्रह्मा जैसे अनेक देवता लक्ष्मी देवी को प्रसन्न करने के लिए लालायित रहते हैं, किन्तु लक्ष्मी जी स्वयं अपने हाथ में कमल पुष्प लेकर परमेश्वर की सेवा करने के लिए सदैव तत्पर रहती हैं।
 
तात्पर्य
 सुनीति ने यह इंगित किया कि भगवान् तथा अन्य देवताओं से प्राप्त आशीर्वाद एक समान नहीं होते। मूर्ख लोग ऐसा कहते हैं कि चाहे जिस देवता को पूजो, फल समान मिलेगा, किन्तु तथ्य यह नहीं है। भगवद्गीता में भी कहा गया है कि देवताओं से प्राप्त वर क्षणिक होते हैं और अल्प-ज्ञानियों के लिए हैं। दूसरे शब्दों में, चूँकि सारे ही देवता भौतिकता की दृष्टि से बद्धजीव ही हैं, अत: यद्यपि ये उच्च पद पर आसीन होते है तो भी उनके वरदान स्थायी नहीं हो सकते। स्थायी वरदान तो आत्मिक होता है, क्योंकि आत्मा शाश्वत है। भगवद्गीता में यह भी कहा गया है कि जिनकी मति मारी गई है, वे ही देवताओं की पूजा करते हैं। अत: सुनीति ने अपने पुत्र से कहा कि वह देवताओं का कृपापात्र न बनकर अपने कष्ट को कम करने के लिए भगवान् के पास जाए।

भगवान् भौतिक ऐश्वर्यों का नियंत्रण अपनी विभिन्न शक्तियों द्वारा, विशेष रूप से सम्पत्ति की देवी द्वारा, करते हैं। अत: जो ऐश्वर्य की खोज में हैं, वे सम्पत्ति की देवी के कृपापात्र बनना चाहते हैं। यहाँ तक कि बड़े-बड़े देवता भी सम्पत्ति की देवी की पूजा करते हैं, किन्तु सम्पत्ति की देवी महालक्ष्मी जी स्वयं भगवान् की कृपाकांक्षी रहती हैं। अत: जो मनुष्य भगवान् की पूजा करता है, वह सम्पत्ति की देवी के आशीर्वाद स्वत: प्राप्त कर लेता है। चूँकि जीवन की इस स्थिति में ध्रुव महाराज भौतिक ऐश्वर्य की खोज में थे, अत: उनकी माता ने ठीक ही सलाह दी कि भौतिक ऐश्वर्य के लिए भी देवताओं की पूजा न करके भगवान् को पूजें।

यद्यपि शुद्ध भक्त कभी भगवान् से भौतिक समृद्धि का वर नहीं माँगता, किन्तु भगवद्गीता में कहा गया है कि शुद्ध व्यक्ति भौतिक वरों के लिए भी भगवान् के ही पास जाते हैं। जो व्यक्ति भौतिक लाभ के लिए भगवान् के पास जाता है, वह क्रमश: उनकी संगति से पवित्र हो जाता है। इस प्रकार वह समस्त भौतिक आकांक्षाओं से मुक्त होकर आध्यात्मिक जीवन के स्तर को प्राप्त होता है। जब तक कोई आध्यात्मिक पद को प्राप्त नहीं हो लेता, तब तक उसके लिए भौतिक कल्मष को पूर्ण रूप से पार कर पाना दुस्तर है।

ध्रुव की माता सुनीति दूरदर्शी थीं, अत: उन्होंने अपने पुत्र को अन्य देवताओं को त्याग कर केवल श्रीभगवान् की पूजा करने के लिए कहा। यहाँ पर भगवान् को पद्मपलाशलोचनात् अर्थात् कमल पुष्प जैसे नेत्रों वाला कहा गया है। यदि मनुष्य थका हो और वह कमलपुष्प देख ले तो उसकी सारी थकान जाती रहती है। इसी प्रकार जब कोई दुखी व्यक्ति श्रीभगवान् के कमल-मुख का दर्शन करता है, तो उसका दुख कम हो जाता है। भगवान् विष्णु तथा सम्पत्ति की देवी लक्ष्मी के हाथ में लिया गया कमल पुष्प सौभाग्य का एक प्रतीक है। एक ही साथ विष्णु तथा लक्ष्मी के उपासक सभी प्रकार से, विशेष रूप से भौतिक जीवन में परम ऐश्वर्यशाली होते हैं। भगवान् को कभी-कभी शिव-विरिञ्चि-नुतम् कहा जाता है, जिसका अर्थ है कि श्रीभगवान् नारायण के चरणकमलों को ब्रह्मा तथा शिव भी नमस्कार करते हैं।

 
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