श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 8: ध्रुव महाराज का गृहत्याग और वनगमन  »  श्लोक 24
 
 
श्लोक  4.8.24 
मैत्रेय उवाच
एवं सञ्जल्पितं मातुराकर्ण्यार्थागमं वच: ।
सन्नियम्यात्मनात्मानं निश्चक्राम पितु: पुरात् ॥ २४ ॥
 
शब्दार्थ
मैत्रेय: उवाच—मैत्रेय मुनि ने कहा; एवम्—इस प्रकार; सञ्जल्पितम्—परस्पर बातें करते; मातु:—माता से; आकर्ण्य—सुनकर; अर्थ-आगमम्—सार्थक; वच:—शब्द; सन्नियम्य—संयमित करके; आत्मना—मन से; आत्मानम्—अपने को; निश्चक्राम— निकल पड़े; पितु:—पिता के; पुरात्—घर से ।.
 
अनुवाद
 
 मैत्रेय मुनि ने आगे कहा : ध्रुव महाराज की माता सुनीति का उपदेश वस्तुत: उनके मनोवांछित लक्ष्य को पूरा करने के निमित्त था, अत: बुद्धि तथा दृढ़ संकल्प द्वारा चित्त का समाधान करके उन्होंने अपने पिता का घर त्याग दिया।
 
तात्पर्य
 माता तथा पुत्र दोनों को कोप था कि ध्रुव महाराज का अपमान उनकी विमाता द्वारा हुआ और उनके पिता ने उस पर कोई कार्यवाही नहीं की। किन्तु कोरा कोप वृथा है, उसे कम करने का उपाय खोजना चाहिए। अत: माता तथा पुत्र दोनों ने भगवान् की शरण में जाना उचित समझा, क्योंकि समस्त भौतिक समस्याओं का एकमात्र हल वही है। यहाँ यह सूचित किया गया है कि ध्रुव महाराज ने अपने पिता की राजधानी छोड़ दी और भगवान् की खोज करने के लिए एकान्त स्थान में चले गये। प्रह्लाद महाराज का भी यही उपदेश है कि मन की शान्ति चाहने वालों को गृहस्थ जीवन के समस्त कल्मष से मुक्त होकर वन में जाकर भगवान् की शरण ग्रहण करनी चाहिए। गौड़ीय वैष्णवों के लिए यह वन “वृन्दा का वन” या वृन्दावन है। यदि मनुष्य वृन्दावन में वृन्दावनेश्वरी श्रीमती राधारानी की शरण ग्रहण करता है, तो निश्चय ही उसकी जीवन की सभी समस्याएँ आसानी से हल हो जाती हैं।
 
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