श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 8: ध्रुव महाराज का गृहत्याग और वनगमन  »  श्लोक 28
 
 
श्लोक  4.8.28 
विकल्पे विद्यमानेऽपि न ह्यसन्तोषहेतव: ।
पुंसो मोहमृते भिन्ना यल्लोके निजकर्मभि: ॥ २८ ॥
 
शब्दार्थ
विकल्पे—अन्य उपाय; विद्यमाने अपि—रहने पर भी; न—नहीं; हि—निश्चय ही; असन्तोष—नाराजगी; हेतव:—कारण; पुंस:—मनुष्यों का; मोहम् ऋते—मोहग्रस्त हुए बिना; भिन्ना:—पृथक् हुआ; यत् लोके—इस लोक में; निज-कर्मभि:—अपने कार्य से ।.
 
अनुवाद
 
 हे ध्रुव, यदि तुम समझते हो कि तुम्हारे आत्मसम्मान को ठेस पहुँची है, तो भी तुम्हें असंतुष्ट होने का कोई कारण नहीं है। इस प्रकार का असन्तोष माया का ही अन्य लक्षण है; प्रत्येक जीवात्मा अपने पूर्व कर्मों के अनुसार नियंत्रित होता है, अत: सुख तथा दुख भोगने के लिए नाना प्रकार के जीवन होते हैं।
 
तात्पर्य
 वेदों में कहा गया है कि जीवात्मा भौतिक संसर्ग से सर्वथा अदूषित तथा अप्राभिवत रहता है। जीवात्मा को अपने पूर्वकर्मों के अनुसार भिन्न-भिन्न प्रकार की भौतिक देह प्राप्त होती हैं। किन्तु यदि कोई यह जान ले कि जीवित आत्मा के रूप में उसका सुख या दुख से कोई लगाव नहीं हो, तो उसे मुक्त पुरुष कहा जाता है। भगवद्गीता (१८.५४) में इसकी पुष्टि हुई है—ब्रह्मभूत: प्रसन्नात्मा— जब मनुष्य वास्तव में दिव्य पद पर आसीन होता है, तो न तो वह किसी वस्तु के लिए शोक करता है न इच्छा। नारद मुनि ने सर्वप्रथम ध्रुव महाराज को यह बताना चाहा कि अभी तो वह बालक है; उसे अपमान या सम्मान के शब्दों से इतना प्रभावित नहीं होना चाहिए। और यदि वह इतना आगे बढ़ चुका है कि अपमान अथवा सम्मान को समझने लगा है, तो उसे इस ज्ञान का सदुपयोग अपने निजी जीवन में प्रयोग करके देखना चाहिए। उसे यह ज्ञात होना चाहिए कि मान या अपमान पूर्वकर्मों के द्वारा निर्धारित होते हैं, अत: मनुष्य को किसी भी परिस्थिति में दुखी या प्रसन्न नहीं होना चाहिए।
 
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