भगवान् की गति बड़ी विचित्र है। बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि वह इस गति को स्वीकार करे और अनुकूल या प्रतिकूल जो कुछ भी भगवान् की इच्छा से सम्मुख आए, उससे संतुष्ट रहे।
तात्पर्य
महर्षि नारद ने ध्रुव महाराज को शिक्षा दी कि सभी परिस्थितियों में मनुष्य को संतुष्ट रहना चाहिए। प्रत्येक बुद्धिमान मनुष्य को यह समझना चाहिए कि देहात्म-बुद्धि के कारण ही हमें सुख तथा दुख भोगने पड़ते हैं। जो दिव्य अवस्था को प्राप्त है और देहात्म-बुद्धि से परे है, वह बुद्धिमान समझा जाता है। जो भक्त होता है, वह समस्त असफलताओं को भगवान् का विशिष्ट वरदान मानता है। जब भक्त कष्ट में होता है, तो वह इसे भगवान् की कृपा मानकर मन, बुद्धि तथा शरीर से उनको बारम्बार प्रणाम करता है। अत: बुद्धिमान मनुष्य को ईश्वर की कृपा पर निर्भर रहते हुए सदैव संतुष्ट रहना चाहिए।
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