श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 8: ध्रुव महाराज का गृहत्याग और वनगमन  »  श्लोक 30
 
 
श्लोक  4.8.30 
अथ मात्रोपदिष्टेन योगेनावरुरुत्ससि ।
यत्प्रसादं स वै पुंसां दुराराध्यो मतो मम ॥ ३० ॥
 
शब्दार्थ
अथ—अत:; मात्रा—अपनी माता द्वारा; उपदिष्टेन—उपदेश दिया जाकर; योगेन—योग ध्यान से; अवरुरुत्ससि—अपने को ऊपर उठाना चाहते हो; यत्-प्रसादम्—जिसकी कृपा; स:—वह; वै—निश्चय ही; पुंसाम्—जीवात्माओं का; दुराराध्य:—करने में अत्यन्त कठिन; मत:—विचार; मम—मेरा ।.
 
अनुवाद
 
 अब तुमने अपनी माता के उपदेश से भगवान् की कृपा प्राप्त करने के लिए ध्यान की योग- विधि पालन करने का निश्चय किया है, किन्तु मेरे विचार से ऐसी तपस्या सामान्य व्यक्ति के लिए सम्भव नहीं है। भगवान् को प्रसन्न कर पाना अत्यन्त कठिन है।
 
तात्पर्य
 भक्ति-योग की पद्धति का पालन कर पाना सरल भी है और कठिन भी। परम गुरु नारद मुनि यह देखने के लिए ध्रुव महाराज की परीक्षा कर रहे हैं कि भक्ति करने के लिए वह कितना कृतसंकल्प है। शिष्य बनाने की यही विधि है। नारद मुनि ध्रुव के पास भगवान् के आदेश से दीक्षा देने के लिए आये थे तो भी वे ध्रुव के संकल्प की परीक्षा ले रहे थे। फिर भी यह सच है कि निष्ठावान पुरुष के लिए भक्ति अत्यन्त सरल है, किन्तु जो निष्ठावान एवं कृतसंकल्प नहीं है उसके लिए यह अत्यन्त कठिन विधि है।
 
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