अत:—इसलिए; निवर्तताम्—अपने को रोको; एष:—यह; निर्बन्ध:—संकल्प; तव—तुम्हारा; निष्फल:—वृथा; यतिष्यति— भविष्य में प्रयत्न करना; भवान्—स्वयं; काले—काल-क्रम में; श्रेयसाम्—अवसर; समुपस्थिते—आने पर ।.
अनुवाद
इसलिए हे बालक, तुम्हें इसके लिए प्रयत्न नहीं करना चाहिए, इसमें सफलता नहीं मिलने वाली। अच्छा हो कि तुम घर वापस चले जाओ। जब तुम बड़े हो जाओगे तो ईश्वर की कृपा से तुम्हें इन योग-कर्मों के लिए अवसर मिलेगा। उस समय तुम यह कार्य पूरा करना।
तात्पर्य
सामान्यत: भली-भाँति प्रशिक्षित व्यक्ति जीवन के अन्त में ही आत्म-सिद्धि के लिए प्रयत्न करता है। अत: वैदिक पद्धति के अनुसार जीवन चार अवस्थाओं में विभक्त है। प्रारम्भ में मनुष्य ब्रह्मचारी, अर्थात् विद्यार्थी, बनकर गुरु के अधिकृत निर्देशन में वैदिक ज्ञान प्राप्त करता है। तब वह गृहस्थ बनता है और वैदिक विधि से गृहस्थी के कर्तव्यों का पालन करता है। तब गृहस्थ वानप्रस्थ बनता है और क्रमश: ज्यों-ज्यों वह प्रौढ़ होता जाता है गृहस्थ जीवन तथा वानप्रस्थ को भी त्याग देता है और संन्यास ग्रहण करके अपने को पूर्ण रूप से भक्ति में लगाता है।
सामान्यत: लोग सोचते हैं कि बालपन तो खेलने कूदने का समय है, जवानी तरुण बालाओं के साथ आनन्द उठाने के लिए है और बुढ़ापे में जब मरने का समय निकट आए भक्ति या योग-साधना की जा सकती है। किन्तु यह निष्कर्ष उन भक्तों पर लागू नहीं होता जो वास्तव में गम्भीर हैं। नारद मुनि ध्रुव महाराज की परीक्षा लेने के लिए ऐसा उपदेश दे रहे हैं। वास्तव में सीधा आदेश तो यही है कि जीवन के किसी भी बिन्दु से भक्ति प्रारम्भ की जा सकती है। किन्तु गुरु का दायित्व है कि वह देखे कि शिष्य कितनी गम्भीरता से भक्ति में लगना चाहता है। तभी उसे दीक्षित करना चाहिए।
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