मनुष्य को चाहिए कि जीवन की किसी भी अवस्था में, चाहे सुख हो या दुख, जो दैवी इच्छा (भाग्य) द्वारा प्रदत्त है, सन्तुष्ट रहे। जो मनुष्य इस प्रकार टिका रहता है, वह अज्ञान के अंधकार को बहुत सरलता से पार कर लेता है।
तात्पर्य
इस संसार में पवित्र तथा अपवित्र सकाम कर्म होते हैं। जब तक भक्तिमय सेवा के अतिरिक्त कोई भी कार्य किया जाता है, तब तक इस संसार के सुख तथा दुख ही प्राप्त होंगे। जब हम तथाकथित सुखपूर्वक जीवन-यापन करते रहते हैं, तो यह समझना चाहिए कि हमारे पुण्यकर्मों का क्षय ही है। जब हम कष्ट में पड़ जाते हैं, तो यह समझना चाहिए कि हमारे पापकर्मों का फल कम हो रहा है। यदि हम पाप तथा पुण्यकर्मों से मिलने वाले सुख तथा दुख में आसक्त होने के बजाय इस अज्ञान के चंगुल से उबरना चाहते हैं, तो हमें ईश्वर की इच्छा को, चाहे जैसी भी स्थिति में क्यों न रहना पड़े, स्वीकार कर लेना चाहिए। इस प्रकार यदि हम भगवान् की शरण ग्रहण करें तो इस भौतिक संसार के चंगुल से छूट सकते हैं।
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