श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 8: ध्रुव महाराज का गृहत्याग और वनगमन  »  श्लोक 35
 
 
श्लोक  4.8.35 
ध्रुव उवाच
सोऽयं शमो भगवता सुखदु:खहतात्मनाम् ।
दर्शित: कृपया पुंसां दुर्दर्शोऽस्मद्विधैस्तु य: ॥ ३५ ॥
 
शब्दार्थ
ध्रुव: उवाच—ध्रुव महाराज ने कहा; स:—वह; अयम्—यह; शम:—मन का संतुलन; भगवता—आपके द्वारा; सुख-दु:ख— सुख तथा दुख; हत-आत्मनाम्—जो प्रभावित हैं; दर्शित:—दिखाया गया; कृपया—कृपा द्वारा; पुंसाम्—लोगों का; दुर्दर्श:— देख पाना कठिन; अस्मत्-विधै:—हम जैसे व्यक्तियों द्वारा; तु—लेकिन; य:—जो भी आपने कहा ।.
 
अनुवाद
 
 ध्रुव महाराज ने कहा : हे नारद जी, आपने मन की शान्ति प्राप्त करने के लिए कृपापूर्वक जो भी कहा है, वह ऐसे पुरुष के लिए निश्चय ही अत्यन्त शिक्षाप्रद है, जिसका हृदय सुख तथा दुख की भौतिक परिस्थितियों से चलायमान है। लेकिन जहाँ तक मेरा सम्बन्ध है मैं तो अविद्या से प्रच्छन्न हूँ और इस प्रकार का दर्शन मेरे हृदय को स्पर्श नहीं कर पाता।
 
तात्पर्य
 मनुष्यों की अनेक श्रेणियाँ हैं। एक श्रेणी अकामी कहलाती है। वह उन मनुष्यों की है जिनके कोई भौतिक आकांक्षा नहीं रहती। आकांक्षा, चाहे भौतिक हो या दिव्य, वह तो रहती ही है। भौतिक आकांक्षा का उदय तब होता है जब कोई अपनी ही इन्द्रियों को तुष्ट करना चाहता है। जो व्यक्ति भगवान् को प्रसन्न करने के लिए किसी वस्तु की भी बलि करने को उद्यत रहता है, तो उसकी आकांक्षा दिव्य है। ध्रुव ने नारद मुनि द्वारा दिये उपदेश को ग्रहण नहीं किया, क्योंकि उन्होंने अपने को ऐसी शिक्षा के लिए सर्वथा अयोग्य समझा जो भौतिक आकांक्षाओं का दमन करती हो। किन्तु यह तथ्य नहीं है कि भौतिक आकांक्षा रखने वालों को भगवान् की पूजा करना मना है। ध्रुव के जीवन से यह एक अनिवार्य शिक्षा प्राप्त होती है। उन्होंने स्पष्ट रूप से स्वीकार किया कि उनके हृदय में भौतिक आकांक्षा है। वे अपनी विमाता के कटु वचनों से अत्यन्त प्रभावित थे, जबकि आध्यात्मिक रूप से आगे बढ़े हुए लोग किसी की निन्दा या स्तुति की परवाह नहीं करते।

भगवद्गीता में कहा गया है कि जो वास्तव में आध्यात्मिक जीवन में ऊपर उठे हुए हैं, वे इस जगत के द्वैतभाव की परवाह नहीं करते। किन्तु ध्रुव महाराज ने स्पष्ट रूप से स्वीकार किया कि वे भौतिक सुख-दुख के प्रधातो से ऊपर नहीं हैं। उन्हें विश्वास था कि नारद का उपदेश उपयोगी है, तो भी वे उसे स्वीकार नहीं कर पाये। यहाँ उठाया गया प्रश्न है कि भौतिक आकांक्षाओं से ग्रस्त व्यक्ति भगवान् की पूजा करने का पात्र है, अथवा नहीं? इसका उत्तर यही है कि प्रत्येक व्यक्ति ईश्वर की पूजा करने का पात्र है। भले ही मनुष्य अनेक भौतिक आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए इच्छुक हो, उसे कृष्ण भावनामृत को अपनाना चाहिए और कृष्ण की पूजा करनी चाहिए, क्योंकि वे इतने दयालु हैं कि सबों की आकांक्षाओं को पूरा करते हैं। इस वर्णन से यह स्पष्ट है कि भले ही किसी की कितनी भौतिक आकांक्षाएँ क्यों न हों, उसे भगवान् की पूजा करने से रोका नहीं जा सकता।

 
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