श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 8: ध्रुव महाराज का गृहत्याग और वनगमन  »  श्लोक 36
 
 
श्लोक  4.8.36 
अथापि मेऽविनीतस्य क्षात्‍त्रं घोरमुपेयुष: ।
सुरुच्या दुर्वचोबाणैर्न भिन्ने श्रयते हृदि ॥ ३६ ॥
 
शब्दार्थ
अथ अपि—अत:; मे—मेरा; अविनीतस्य—अविनीत का; क्षात्त्रम्—क्षत्रियत्व; घोरम्—असह्य; उपेयुष:—प्राप्त; सुरुच्या:— सुरुचि का; दुर्वच:—कटु वचन; बाणै:—बाणों से; न—नहीं; भिन्ने—बेधा जाकर; श्रयते—रह रहे हैं, पड़े हैं; हृदि—हृदय में ।.
 
अनुवाद
 
 हे भगवन्, मैं आपके उपदेशों को न मानने की धृष्टता कर रहा हूँ। किन्तु यह मेरा दोष नहीं है। यह तो क्षत्रिय कुल में जन्म लेने के कारण है। मेरी विमाता सुरुचि ने मेरे हृदय को अपने कटु वचनों से क्षत-विक्षत कर दिया है। अत: आपकी यह महत्त्वपूर्ण शिक्षा मेरे हृदय में टिक नहीं पा रही।
 
तात्पर्य
 कहा जाता है कि हृदय अथवा मन मिट्टी के पात्र सदृश है। एक बार टूट जाने पर यह किसी प्रकार नहीं जोड़ा जा सकता। ध्रुव महाराज ने यह उदाहरण नारद के समक्ष रखा। उन्होंने कहा कि उनका हृदय विमाता के कटुवचन रूपी बाणों से इतना बिद्ध हो चुका है कि अब उस अपमान का बदला लेने की इच्छा के अतिरिक्त कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा। उनकी विमाता ने कहा था कि वह महाराज उत्तानपाद की उपेक्षिता रानी सुनीति के गर्भ से उत्पन्न हुआ है, अत: वह न तो सिंहासन पर, न ही अपने पिता की गोद में बैठने का अधिकारी है। दूसरे शब्दों में, अपनी विमाता के अनुसार वह राजा घोषित नहीं हो सकता था। इसीलिए ध्रुव महाराज ने संकल्प किया था कि वे समस्त देवताओं में श्रेष्ठ ब्रह्मा के लोक से भी बढक़र के किसी लोक के राजा होंगे।

ध्रुव महाराज ने अप्रत्यक्ष रूप के नारद मुनि को बता दिया कि चार प्रकार की मानवीय वृत्ति होती है—ब्राह्मण की, क्षत्रिय की, वैश्य की तथा शूद्र की। एक जाति की वृत्ति दूसरी पर लागू नहीं होती। नारद मुनि ने जिस आध्यात्मिक वृत्ति का प्रतिपादन किया था वह ब्राह्मण वृत्ति के अनुकूल भले रही हो, किन्तु क्षत्रिय वृत्ति के अनुकूल न थी। ध्रुव ने स्पष्ट रूप से स्वीकार किया कि उसमें ब्राह्मण जैसी विनयशीलता नहीं है, अत: वे नारद मुनि के विचार (दर्शन) को स्वीकार नहीं कर सकते।

ध्रुव महाराज के कथन से सूचित होता है कि जब तक बालक को उसकी प्रवृत्ति के अनुसार शिक्षित नहीं किया जाता, तब तक वह अपनी विशेष वृत्ति को विकसित नहीं कर सकता। यह तो गुरु या शिक्षक का कर्तव्य है कि बालक विशेष की मनोवैज्ञानिक गतिविधि का निरीक्षण करे और उसे किसी विशेष व्यवसाय में प्रवृत्त करे। ध्रुव महाराज को पहले से क्षत्रिय वृत्ति की शिक्षा मिली थी, अत: वे ब्राह्मण वृत्ति को स्वीकार करने के लिए तैयार न थे। अमरीका में ब्राह्मणों तथा क्षत्रियों के स्वभावों में अनुकूलता न होने के कारण व्यावहारिक कठिनाई उत्पन्न हो रही है। जिन अमरीकी बालकों को शूद्रों के समान प्रशिक्षित किया गया है, वे युद्ध-भूमि में लडऩे के लिए सर्वथा अयोग्य हैं। अत: जब उन्हें सेना में सम्मिलित होने के लिए कहा जाता है, तो वे इनकार कर देते हैं, क्योंकि उनमें क्षत्रिय वृत्ति नहीं रहती। समाज में इससे महान् असन्तोष है।

यदि उन बालकों में क्षत्रिय वृत्ति नहीं है, तो इसका अर्थ यह भी नहीं है कि वे ब्राह्मण-गुणों में प्रशिक्षित हैं। उन्हें तो शूद्र रूप में प्रशिक्षित किया गया है, अत: वे आक्रोश के कारण हिप्पी बन रहे हैं। किन्तु वे जैसे ही अमरीका में चलाये जा रहे कृष्णभावनामृत-आन्दोलन में प्रवेश करते हैं उन्हें ब्राह्मण- गुण अर्जित करने की शिक्षा दी जाती है, यद्यपि वे शूद्र की निम्नतम अवस्था को प्राप्त रहते हैं। दूसरे शब्दों में, चूँकि कृष्णभावनामृत-आन्दोलन के द्वार सबों के लिए खुले हैं, अत: लोग सामान्यत: ब्राह्मण-गुणों को प्राप्त कर सकते हैं। आज के समय की यही सबसे बड़ी आवश्यकता है, क्योंकि ब्राह्मण या क्षत्रिय बहुत की कम हैं, केवल कुछ वैश्य हैं और अधिकांश शूद्र हैं। समाज का ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र में वर्गीकरण अत्यत वैज्ञानिक है। मानवीय समाज रूपी शरीर में ब्राह्मण सिर हैं, क्षत्रिय बाहु हैं, वैश्य उदर हैं और शूद्र पाँव हैं। इस समय शरीर में पाँव तथा उदर रह गये हैं, बाहु या सिर नहीं है, अत: सारा समाज अस्त-व्यस्त हो गया है। पतित मानव-समाज को आत्म-चेतना के स्तर तक उठाने के लिए ब्राह्मण-गुणों की पुनर्स्थापना की आवश्यकता है।

 
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