नारद उवाच
जनन्याभिहित: पन्था: स वै नि:श्रेयसस्य ते ।
भगवान् वासुदेवस्तं भज तं प्रवणात्मना ॥ ४० ॥
शब्दार्थ
नारद: उवाच—नारद मुनि ने कहा; जनन्या—अपनी माता के द्वारा; अभिहित:—कहे गये; पन्था:—पथ; स:—उस; वै—निश्चय ही; नि:श्रेयसस्य—जीवन का परम लक्ष्य; ते—तुम्हारे लिए; भगवान्—भगवान्; वासुदेव:—श्रीकृष्ण; तम्—उसकी; भज— सेवा करो; तम्—उसके द्वारा; प्रवण-आत्मना—अपने मन को एकाग्र करके ।.
अनुवाद
नारद मुनि ने ध्रुव महाराज से कहा : तुम्हारी माता सुनीति ने भगवान् की भक्ति के पथ का अनुसरण करने के लिए जो उपदेश दिया है, वह तुम्हारे लिए सर्वथा अनुकूल है। अत: तुम्हें भगवान् की भक्ति में पूर्ण रूप से निमग्न हो जाना चाहिए।
तात्पर्य
ध्रुव महाराज ब्रह्मा से भी श्रेष्ठतर धाम प्राप्त करना चाहते थे। इस ब्रह्माण्ड में ब्रह्मा का पद सबसे बड़ा माना जाता है, क्योंकि वे समस्त देवताओं के प्रधान हैं, किन्तु ध्रुव महाराज उनसे भी बढक़र कोई धाम चाह रहे थे। अत: उनकी इच्छा किसी देवता को पूज कर पूरी नहीं हो सकती थी। जैसाकि भगवद्गीता में कहा गया है, देवताओं द्वारा दिये गये वरदान क्षणिक होते हैं, अत: नारद मुनि ने ध्रुव महाराज को उनकी माता द्वारा बताये गये पथ—वासुदेव श्रीकृष्ण की पूजा—का अनुसरण करने के लिए कहा। जब श्रीकृष्ण कोई वस्तु प्रदान करते हैं, तो वह भक्तों की आशा से परे (अपूर्व) होती है। सुनीति तथा नारद मुनि दोनों ही जानते थे कि ध्रुव महाराज की माँग को पूरा कर पाना किसी देवता के वश की बात नहीं है, अत: दोनों ने भगवान् कृष्ण की भक्ति के पथ का अनुसरण करने की सलाह दी।
यहाँ पर नारद मुनि को भगवान् कहा गया है, क्योंकि वे भी भगवान् के ही समान किसी भी व्यक्ति को आशीर्वाद दे सकते हैं। वे ध्रुव महाराज से परम प्रसन्न थे और वे चाहते तो तुरन्त ही मनवांछित वर दे सकते थे, किन्तु गुरु का यह कर्तव्य नहीं है। उसका कर्तव्य तो शास्त्रानुमोदित रीति से शिष्य को भक्ति में लगाना है। इसी प्रकार अर्जुन के समक्ष श्रीकृष्ण उपस्थित थे और वे चाहते तो बिना युद्ध के विपक्षी दल पर विजय करा देते, किन्तु उन्होंने वैसा नहीं किया, अपितु उन्होंने उससे युद्ध करने के लिए कहा। इसी प्रकार नारद मुनि ने ध्रुव महाराज को वांछित फल प्राप्त करने के लिए भक्ति-पथ का अनुसरण करने के लिए कहा।
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