शिला या शालग्राम-शिला सामने रखी जाती है। वस्तुत: परमेश्वर की अनुमति के बिना देवता कोई वरदान नहीं दे सकते। अत: नारद मुनि ने सलाह दी कि धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष के लिए भी मनुष्य को भगवान् की शरण ग्रहण करनी चाहिए, स्तुति करनी चाहिए और उनके चरणकमलों पर अपनी इच्छा की पूर्ति के लिए याचना करनी चाहिए। यही वास्तविक बुद्धिमानी है। बुद्धिमान पुरुष कभी भी देवताओं से कुछ भी माँगने नहीं जाता। वह सीधे भगवान् के पास जाता है, जो समस्त वरदानों के कारणस्वरूप हैं। जैसाकि भगवान् श्रीकृष्ण ने भगवद्गीता में कहा है कर्मकाण्ड-अनुष्ठानों का सम्पन्न किया जाना वास्तविक धर्म नहीं है। धर्म का वास्तविक पथ तो भगवान् के चरणकमलों पर समर्पित होना है। जो भगवान् के चरणकमलों पर समर्पित हो चुका है उसके लिए अर्थ का कोई महत्त्व नहीं रह जाता। जो भक्त भगवान् की सेवा में लगा रहता है, वह अपनी इन्द्रियों की तुष्टि के बारे में कभी भी निराश नहीं होता। यदि वह अपनी इन्द्रियों की तुष्टि चाहता है, तो श्रीकृष्ण वह भी इच्छा पूरी करते हैं। जहाँ तक मुक्ति का प्रश्न है, कोई भी भक्त जो भगवान् की सेवा में पूर्णत: अनुरक्त है, वह पहले से मुक्त रहता है, अत: अलग से मोक्ष की कोई आवश्यकता नहीं है। अत: नारद मुनि ने ध्रुव महाराज को सलाह दी कि वे वासुदेव श्रीकृष्ण की शरण ग्रहण करें और अपनी माता द्वारा बताई गई विधि को मानें, क्योंकि इस प्रकार उनकी इच्छा पूर्ण होने में सहायता मिल सकेगी। इस श्लोक में नारद मुनि ने भगवान् की भक्ति को ही एकमात्र साधन बताया है। दूसरे शब्दों में, समस्त भौतिक आकांक्षाओं से युक्त होने पर भी मनुष्य को भगवान् की भक्ति करते रहना चाहिए। इससे उसकी समस्त इच्छाएँ पूरी होंगी। |