श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 8: ध्रुव महाराज का गृहत्याग और वनगमन  »  श्लोक 43
 
 
श्लोक  4.8.43 
स्‍नात्वानुसवनं तस्मिन् कालिन्द्या: सलिले शिवे ।
कृत्वोचितानि निवसन्नात्मन: कल्पितासन: ॥ ४३ ॥
 
शब्दार्थ
स्नात्वा—स्नान करके; अनुसवनम्—तीन बार; तस्मिन्—उस; कालिन्द्या:—कालिन्दी नदी (यमुना) में; सलिले—जल में; शिवे—शुभ; कृत्वा—करके; उचितानि—उपयुक्त; निवसन्—बैठ कर; आत्मन:—स्वयं का; कल्पित-आसन:—आसन बनाकर ।.
 
अनुवाद
 
 नारद मुनि ने उपदेश दिया : हे बालक, यमुना नदी अथवा कालिन्दी के जल में तुम नित्य तीन बार स्नान करना, क्योंकि यह जल शुभ, पवित्र एवं स्वच्छ है। स्नान के पश्चात् अष्टांगयोग के आवश्यक अनुष्ठान करना और तब शान्त मुद्रा में अपने आसन पर बैठ जाना।
 
तात्पर्य
 ऐसा प्रतीत होता है कि ध्रुव महाराज को पहले ही अष्टांग-योग-विधि का अभ्यास करना बता दिया गया था। इस विधि की व्याख्या हमारी पुस्तक भगवद्गीता यथारूप के सांख्य योग शीर्षक के अध्याय छह श्लोक ११ से १५ में की गई है। अष्टांग योग में मन को स्थिर किया जाता है और फिर विष्णु के रूप में केन्द्रित किया जाता है, जैसाकि अगले श्लोकों में बताया गया है। यहाँ यह स्पष्ट कहा गया है कि अष्टांग योग कोई शारीरिक व्यायाम नहीं, वरन् विष्णु के स्वरूप के साथ मन को एकाग्र करने का अभ्यास है। आसन में बैठने के पूर्व जैसा भगवद्गीता में कहा गया है मनुष्य को नित्य स्वच्छ अथवा पवित्र जल से प्रति दिन तीन बार अपने को शुद्ध करना होता है। यमुना का जल स्वभावत: अत्यन्त स्वच्छ तथा शुद्ध रहता है, अत: जो भी इसमें तीन बार स्नान करता है, निस्सन्देह, बाहर से वह अत्यधिक शुद्ध हो जाता है। इसीलिए नारद मुनि ने ध्रुव महाराज को सलाह दी कि वे यमुना तट पर जाँए और बाहर से शुद्ध हो लें। योग-अभ्यास की क्रमिक विधि का यह अंग है।
 
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