श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 8: ध्रुव महाराज का गृहत्याग और वनगमन  »  श्लोक 44
 
 
श्लोक  4.8.44 
प्राणायामेन त्रिवृता प्राणेन्द्रियमनोमलम् ।
शनैर्व्युदस्याभिध्यायेन्मनसा गुरुणा गुरुम् ॥ ४४ ॥
 
शब्दार्थ
प्राणायामेन—प्राणायाम (श्वास की कसरत) से; त्रि-वृता—तीन विधियों से; प्राण-इन्द्रिय—प्राणवायु तथा इन्द्रियाँ; मन:— मन; मलम्—अशुद्धि; शनै:—धीरे-धीरे; व्युदस्य—छोडक़र; अभिध्यायेत्—ध्यान धरो; मनसा—मन से; गुरुणा—अविचल; गुरुम्—परम गुरु, श्रीकृष्ण को ।.
 
अनुवाद
 
 आसन ग्रहण करने के पश्चात् तुम तीन प्रकार के प्राणायाम करना और इस प्रकार धीरे-धीरे प्राणवायु, मन तथा इन्द्रियों को वश में करना। अपने को समस्त भौतिक कल्मष से मुक्त करके तुम अत्यन्त धैर्यपूर्वक भगवान् का ध्यान प्रारम्भ करना।
 
तात्पर्य
 इस श्लोक में संक्षेप में सारी योग-विधि वर्णित है और मन को विचलित होने से रोकने के लिए प्राणायाम पर विशेष बल दिया गया है। मन स्वभावत: सदैव दोलायमान रहता है क्योंकि वह चंचल है, किन्तु प्राणायाम से इसे रोका जा सकता है। लाखों वर्ष पूर्व जब ध्रुव महाराज ने प्राणायाम का अभ्यास किया, तो उस समय मन को इस प्रकार वश में करना सम्भव रहा होगा, किन्तु आज के समय में तो कीर्तन द्वारा मन को सीधे भगवान् के चरणकमलों में स्थिर करना होता है। हरे कृष्ण मंत्र का जाप करके मनुष्य तुरन्त शब्दोच्चार में केन्द्रित होकर भगवान् के चरणकमल का चिन्तन करता है और शीघ्र ही वह समाधि की दशा को प्राप्त हो जाता है। यदि कोई भगवान् के पवित्र नामों का कीर्तन करता रहे तो स्वाभाविक है कि उसका मन भगवान् के विचार में मग्न हो जाए, क्योंकि भगवान् के नाम भगवान् से भिन्न नहीं हैं।

यहाँ पर संस्तुति की गई है कि ध्रुव महाराज परम गुरु का ध्यान करें। परम गुरु तो श्रीकृष्ण हैं, जो चैत्य गुरु कहलाते हैं, जिसका अर्थ है परमात्मा, जो प्रत्येक प्राणी के हृदय में स्थित हैं। जैसाकि भगवद्गीता में कहा गया है, परमात्मा अन्तर से सहायता करते हैं और गुरु भेज देते हैं जो बाहर से सहायता करता है। गुरु तो चैत्य गुरु अर्थात् प्रत्येक के हृदय में स्थित परमात्मा का बाह्य प्राकट्य है।

जिस विधि से हम भौतिक वस्तुओं के प्रति अपने विचारों का परित्याग करते हैं वह प्रत्याहार कहलाती है, जिसमें समस्त भौतिक विचारों तथा व्यापारों से मुक्त होना सम्मिलित है। इस श्लोक में प्रयुक्त अभिधायेत् शब्द सूचित करता है कि जब तक मनुष्य का मन स्थिर नहीं हो जाता, तब तक वह ध्यान नहीं कर सकता। अत: निष्कर्ष यह निकला कि ध्यान का अर्थ है अन्त: में भगवान् के विषय में सोचना। चाहे अष्टांग योग से यह अवस्था प्राप्त की जाये या इस युग के लिए शास्त्रों द्वारा बताई गई नाम-कीर्तन की विधि से प्राप्त की जाये, दोनों का उद्देश्य भगवान् के विषय में ध्यान करना है।

 
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