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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 8: ध्रुव महाराज का गृहत्याग और वनगमन  »  श्लोक 51
 
 
श्लोक  4.8.51 
स्मयमानमभिध्यायेत्सानुरागावलोकनम् ।
नियतेनैकभूतेन मनसा वरदर्षभम् ॥ ५१ ॥
 
शब्दार्थ
स्मयमानम्—भगवान् की हँसी; अभिध्यायेत्—उनका ध्यान करे; स-अनुराग-अवलोकनम्—भक्तों की ओर अत्यन्त स्नेह से देखते हुए; नियतेन—इस प्रकार, नियमित रूप से; एक-भूतेन—अत्यन्त ध्यानपूर्वक; मनसा—मन-ही-मन; वर-द-ऋषभम्— श्रेष्ठ वरदायक का ध्यान करे ।.
 
अनुवाद
 
 भगवान् सदैव मुस्कराते रहते हैं और भक्त को चाहिए कि वह सदा इसी रूप में उनका दर्शन करता रहे, क्योंकि वे भक्तों पर कृपा-पूर्वक दृष्टि डालते हैं। इस प्रकार से ध्यानकर्ता को चाहिए कि वह समस्त वरों को देने वाले भगवान् की ओर निहारता रहे।
 
तात्पर्य
 इस प्रसंग में नियतेन शब्द अत्यन्त सार्थक है, क्योंकि यह सूचित करता है कि उपर्युक्त निश्चित विधि से ही ध्यान किया जाये। मनुष्य को चाहिए कि वह श्री भगवान् के ध्यान की कोई नई विधि न गढ़े, वरन् प्रामाणिक शास्त्रों तथा महापुरुषों का अनुगमन करे। इस विधि से मनुष्य अपने मन को भगवान् में एकाग्र करने का अभ्यास तब तक करता रह सकता है जब तक कि वह इतना स्थिर न हो ले कि समाधि में रह कर निरन्तर भगवान् के स्वरूप के विषय में ही सोचता रहे। यहाँ पर प्रयुक्त एकभूतेन शब्द का अर्थ, “अत्यन्त ध्यान पूर्वक तथा मनोयोग से” है। यदि कोई भगवान् के शारीरिक स्वरूप पर केन्द्रित रहता है, तो उसकी अधोगति नहीं होती।
 
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