श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 8: ध्रुव महाराज का गृहत्याग और वनगमन  »  श्लोक 52
 
 
श्लोक  4.8.52 
एवं भगवतो रूपं सुभद्रं ध्यायतो मन: ।
निर्वृत्या परया तूर्णं सम्पन्नं न निवर्तते ॥ ५२ ॥
 
शब्दार्थ
एवम्—इस प्रकार; भगवत:—भगवान् का; रूपम्—रूप; सु-भद्रम्—अत्यन्त कल्याणकारी; ध्यायत:—ध्यान करते हुए; मन:—मन; निर्वृत्या—समस्त भौतिक कल्मष से मुक्त होकर; परया—दिव्य; तूर्णम्—शीघ्र; सम्पन्नम्—समृद्ध होकर; न— कभी नहीं; निवर्तते—नीचे आता है ।.
 
अनुवाद
 
 भगवान् के नित्य मंगलमय रूप में जो अपने मन को एकाग्र करते हुए इस प्रकार से ध्यान करता है, वह अतिशीघ्र ही समस्त भौतिक कल्मष से छूट जाता है और भगवान् के ध्यान की स्थिति से फिर लौटकर नीचे (मर्त्य-लोक) नहीं आता।
 
तात्पर्य
 स्थिर ध्यान को समाधि कहते हैं, जैसाकि यहाँ वर्णन हुआ है। भगवान् की प्रेमाभक्ति में निरन्तर लगा रहने वाला व्यक्ति अपने ध्यान से विचलित नहीं हो सकता। मन्दिर में श्रीविग्रह के अर्चन के लिए पांचरात्र भक्ति पद्धति में जो अर्चन-मार्ग बताया गया है, उसमें भक्त निरन्तर भगवान् का चिन्तन करता है, यही समाधि है। जो इस प्रकार से अभ्यास करता है, वह भगवान् की सेवा से विचलित नहीं होता और इससे वह मानव जीवन के उद्देश्य में सफल हो जाता है।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥