श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 8: ध्रुव महाराज का गृहत्याग और वनगमन  »  श्लोक 54
 
 
श्लोक  4.8.54 
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।
मन्त्रेणानेन देवस्य कुर्याद् द्रव्यमयीं बुध: ।
सपर्यां विविधैर्द्रव्यैर्देशकालविभागवित् ॥ ५४ ॥
 
शब्दार्थ
ॐ—हे भगवान्; नम:—नमस्कार है; भगवते—भगवान् को; वासुदेवाय—वासुदेव को; मन्त्रेण—मंत्र से; अनेन—इस; देवस्य—भगवान् का; कुर्यात्—करना चाहिए; द्रव्यमयीम्—भौतिक; बुध:—विद्वान; सपर्याम्—वेदोक्त विधि से पूजा; विविधै:—अनेक प्रकार की; द्रव्यै:—सामग्री से; देश—स्थान के अनुसार; काल—समय; विभाग-वित्—विभागों को जानने वाला ।.
 
अनुवाद
 
 श्रीकृष्ण की पूजा का बारह अक्षर वाला मंत्र है—ॐ नमो भगवते वासुदेवाय। ईश्वर का विग्रह स्थापित करके उसके समक्ष मंत्रोच्चार करते हुए प्रामाणिक विधि-विधानों सहित मनुष्य को फूल, फल तथा अन्य खाद्य-सामग्रियाँ अर्पित करनी चाहिए। किन्तु यह सब देश, काल तथा साथ ही सुविधाओं एवं असुविधाओं का ध्यान रखते हुए करना चाहिए।
 
तात्पर्य
 ॐ नमो भगवते वासुदेवाय को द्वादश अक्षर मन्त्र कहा जाता है। यह मंत्र वैष्णव भक्तों द्वारा जप किया जाता है और यह प्रणव अर्थात् ओंकार से प्रारम्भ होता है। ऐसा आदेश है कि जो ब्राह्मण नहीं हैं, वे इस प्रणव मंत्र का उच्चारण नहीं कर सकते, किन्तु ध्रुव महाराज तो जन्मजात क्षत्रिय थे। उन्होंने नारद मुनि के समक्ष तुरन्त स्वीकार किया कि क्षत्रिय होने के कारण वे नारद के त्याग तथा मन-सन्तुलन के उपदेश को स्वीकार नहीं कर सकते, क्योंकि ये तो ब्राह्मण के लिए हैं। तो भी ब्राह्मण न होते हुए भी नारद के आदेश से ध्रुव को प्रणव ओंकार उच्चारण करने की अनुमति मिल गई। यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। विशेषत: भारत में ब्राह्मण लोग अन्य जाति वालों के द्वारा प्रणव मंत्र का उच्चारण किये जाने पर विरोध करते हैं। किन्तु यहाँ पर सबल प्रमाण है कि जो व्यक्ति वैष्णव मंत्र अथवा देव पूजा की वैष्णव विधि को स्वीकार करता है उसे प्रणव मंत्र का जप करने दिया जाता है। भगवद्गीता में भगवान् स्वयं स्वीकार करते हैं कि चाहे जो कोई हो, भले ही वह निम्नयोनि का हो, यदि वह ठीक से केवल पूजा ही करे तो वह उच्च पद को प्राप्त हो सकता है और भगवान् के धाम को वापस जा सकता है।

जैसाकि नारदमुनि ने बताया है प्रामाणिक नियम यह है कि मनुष्य को प्रामाणिक गुरु से मंत्र ग्रहण करना चाहिए और मंत्र दाहिने कान से सुनना चाहिए। न केवल उसे मंत्र को जपना या गुनगुनाना चाहिए वरन् अपने समक्ष श्रीविग्रह अथवा भगवान् के भौतिक रूप को रखना चाहिए। निस्सन्देह, जब भगवान् प्रकट होते हैं, तो यह भौतिक रूप नहीं रह पाता। उदाहरणार्थ, जब लोहे की छड़ को आग में तपाया जाता है, तो वह लोहा न रहकर आग हो जाता है। इसी प्रकार जब हम भगवान् का स्वरूप तैयार करते हैं—चाहे वह लकड़ी का हो या पत्थर, धातु, मणि या रंग का अथवा मानसिक हो—तो यह भगवान् का प्रामाणिक, आत्मिक, दिव्य रूप होता है। मनुष्य को न केवल नारद जैसे प्रामाणिक गुरु या परम्परा से उनके प्रतिनिधि द्वारा मंत्र ग्रहण करना चाहिए, वरन् मंत्र का जप भी करना चाहिए। उसे केवल जप ही नहीं करना होता, वरन् समय तथा सुविधा के अनुसार जगत के उस भाग (देश) में जो भी खाद्य-सामग्री उपलब्ध हो उसकी भेंट चढ़ानी चाहिए।

पूजा की विधि, जिसमें ही मंत्र का जप तथा भगवान् का स्वरूप (विग्रह) तैयार किया जाता है, घिसी-पिटी नहीं है और न ही सर्वत्र एकसमान है। इस श्लोक में स्पष्ट उल्लेख है कि देश, काल तथा सुविधा का ध्यान रखना चाहिए। हमारा कृष्णभावनामृत-आन्दोलन समग्र विश्व में चलाया जा रहा है और हम भी विभिन्न केन्द्रों में श्रीविग्रह (मूर्तियाँ) स्थापित करते हैं। कभी-कभी हमारे भारतीय मित्र आडम्बरपूर्ण विचारधारा के कारण आलोचना करते हैं “यह नहीं हुआ, वह नहीं हुआ।” किन्तु वे परम वैष्णव ध्रुव महाराज को नारद मुनि द्वारा दी गई शिक्षा को भूल जाते हैं। मनुष्य को देश, काल तथा सुविधा को ध्यान में रखना होगा। भारत में जो सुविधाजनक हो सकता है, वह पश्चिमी देशों में नहीं हो सकता। जो आचार्यों की पंक्ति में नहीं हैं, अथवा जिन्हें आचार्य की तरह कार्य करने का अनुभव नहीं है, वे वृथा ही भारत के बाहर कृष्णभावनामृत-आन्दोलन के कार्यों की आलोचना करते हैं। तथ्य यह है कि ऐसे आलोचक कृष्णचेतना के प्रसार में स्वयं कुछ नहीं कर सकते। यदि कोई बाहर जाता है और देश तथा काल को ध्यान में रखते हुए प्रचार करता है, तो सम्भावना है कि पूजा की विधि में अन्तर आ जाये, किन्तु शास्त्रों के अनुसार यह किंचित्मात्र दोषपूर्ण नहीं है। रामानुज सम्प्रदाय की शिष्य-परम्परा के आचार्य श्रीमद् वीरराघव आचार्य ने अपनी टीका में लिखा हैं कि परिस्थितियों के अनुसार चण्डाल भी, जो शूद्रकुलों से भी निम्न हैं, दीक्षित किये जा सकते हैं। उन्हें वैष्णव बनाने के लिए औपचारिकताओं में यत्र-तत्र परिवर्तन किये जा सकते हैं।

भगवान् चैतन्य महाप्रभु की संस्तुति है कि भगवान् का नाम विश्व के कोने-कोने में सुनाई पड़े। भला जब तक कोई सर्वत्र जाकर उपदेश न दे, तब तक यह कैसे सम्भव है? भगवान् चैतन्य महाप्रभु का सम्प्रदाय भागवत-धर्म है और वे कृष्ण-कथा अथवा भगवद्गीता तथा श्रीमद्भागवत सम्प्रदाय की विशेष संस्तुति करते हैं। वे परोपकार की भावना से प्रत्येक भारतीय को विश्व के अन्य निवासियों तक भगवान् के सन्देश को ले जाने के लिए कहते हैं। “विश्व के अन्य निवासियों” का अर्थ ऐसे लोग नहीं हैं, जो भारतीय ब्राह्मणों या क्षत्रियों के ही समान हों या ब्राह्मण जाति के हों। यह नियम, कि केवल भारतीय तथा हिन्दू ही वैष्णव सम्प्रदाय में आ सकते हैं, भ्रान्तिपूर्ण विचार है। प्रत्येक मनुष्य को वैष्णव-सम्प्रदाय में लाए जाने का प्रचार होना चाहिए। इसी उद्देश्य से कृष्णभावनामृत-आन्दोलन चलाया गया है। इस आन्दोलन को ऐसे लोगों में भी जो चण्डाल, म्लेच्छ या यवन कुलों में उत्पन्न हैं, प्रसारित करने की मनाही नहीं है। यहाँ तक कि भारत में भी यह बात श्रील सनातन गोस्वामी ने अपनी पुस्तक हरि-भक्ति-विलास में कही है, जो एक स्मृति है और दैनिक व्यवहार के लिए वैष्णवों के लिए प्रामाणिक वैदिक पथप्रदर्शिका है। सनातन गोस्वामी कहते हैं कि जिस प्रकार रासायनिक प्रक्रिया से काँसा पारे से मिश्रित होने पर सोना बन सकता है, उसी प्रकार प्रामाणिक दीक्षा से कोई भी वैष्णव बन सकता है। मनुष्य को चाहिए गुरु शिष्य परम्परा में आने वाले प्रामाणिक गुरु से दीक्षा ग्रहण करनी चाहिए, जिसको उनके पहले के गुरु द्वारा प्रामाणित किया गया हो। यह दीक्षा विधान कहलाता है। भगवद्गीता में भगवान् कृष्ण ने व्यपाश्रित्य: अर्थात् गुरु स्वीकार करने के लिए कहा है। इस विधि से समग्र संसार को कृष्णभावनामृत में बदला जा सकता है।

 
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