लब्ध्वा—पाकर; द्रव्य-मयीम्—भौतिक तत्त्वों से बने; अर्चाम्—पूज्य विग्रह; क्षिति—पृथ्वी; अम्बु—जल; आदिषु—इत्यादि; वा—अथवा; अर्चयेत्—पूजा करे; आभृत-आत्मा—आत्मसंयमी; मुनि:—महापुरुष; शान्त:—शान्तिपूर्वक; यत-वाक्— वाग्शक्ति पर संयम रखते हुए; मित—थोड़ा; वन्य-भुक्—जंगल में प्राप्य सामग्री को खाकर ।.
अनुवाद
यदि सम्भव हो तो मिट्टी, लुगदी, लकड़ी तथा धातु जैसे भौतिक तत्त्वों से बनी भगवान् की मूर्ति को पूजा जा सकता है। जंगल में मिट्टी तथा जल से मूर्ति बनाई जा सकती है और उपर्युक्त नियमों के अनुसार उसकी पूजा की जा सकती है। जो भक्त अपने ऊपर पूर्ण संयम रखता है, उसे अत्यन्त नम्र तथा शान्त होना चाहिए और जंगल में जो भी फल तथा वनस्पतियाँ प्राप्त हों उन्हें ही खाकर संतुष्ट रहना चाहिए।
तात्पर्य
भक्त के लिए यह अनिवार्य है कि भगवान् की मूर्ति की पूजा करे; ऐसा नहीं कि वह मात्र अपने मन में भगवान् के स्वरूप का ध्यान करता हुआ गुरु-प्रदत्त मंत्र का जाप करे। जिस रूप की पूजा की जाय, उसे उपस्थित होना चाहिए। निर्विशेषवादी ध्यान करने या निर्गुण की पूजा करने का वृथा श्रम उठाते हैं और यह मार्ग अत्यन्त कठिन है। हमें निर्विशेषवादियों की विधि के अनुसार भगवान् का धाम अथवा पूजा करने की सलाह नहीं दी गई है। ध्रुव महाराज के जंगल में होने के कारण मिट्टी तथा जल से बनी मूर्ति की उपासना करने के लिए कहा गया। यदि धातु, लकड़ी या पत्थर का स्वरूप तैयार न हो सके तो सर्वोत्तम विधि यही हैं कि मिट्टी तथा जल को मिलाकर स्वरूप तैयार कर ले और उसी की पूजा करे। भक्त को चाहिए कि वह भोजन पकाने के लिए चिन्तित न हो, जंगल में अथवा शहर में जो भी फल तथा वनस्पतियाँ उपलब्ध हों उन्हें ही श्रीविग्रह पर चढ़ाएँ और उन्हें ही खाकर सन्तुष्ट रहें। उसे स्वादिष्ट भोजन प्राप्त करने का इच्छुक नहीं होना चाहिए। निस्सन्देह, जहां भी सम्भव हो, श्रीविग्रह को अच्छा से अच्छा भोजन चढ़ाए, चाहे फल तथा वनस्पतियों में से हो या पकाया अथवा अनपकाया भोजन हो। महत्वपूर्ण बात यह कि भक्त को नियमित (मित्-भुक्) होना चाहिए; यही भक्त का उत्तम गुण है। उसे अपनी जीभ के स्वाद की तुष्टि के लिए किसी विशेष भोजन के पीछे नहीं पडऩा चाहिए। भगवान् की कृपा से जो भी प्रसाद उपलब्ध हो उसे खाकर सन्तुष्ट रहना चाहिए।
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