श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 8: ध्रुव महाराज का गृहत्याग और वनगमन  »  श्लोक 58
 
 
श्लोक  4.8.58 
परिचर्या भगवतो यावत्य: पूर्वसेविता: ।
ता मन्त्रहृदयेनैव प्रयुञ्‍ज्यान्मन्त्रमूर्तये ॥ ५८ ॥
 
शब्दार्थ
परिचर्या:—सेवा; भगवत:—भगवान् की; यावत्य:—जिस रूप में (उपर्युक्त) संस्तुत हैं; पूर्व-सेविता:—पूर्व आचार्यों द्वारा कृत अथवा संस्तुत; ता:—वह; मन्त्र—मंत्र; हृदयेन—हृदय के भीतर; एव—निश्चय ही; प्रयुञ्ज्यात्—पूजा करे; मन्त्र-मूर्तये—जो मंत्र से अभिन्न है ।.
 
अनुवाद
 
 संस्तुत सामग्री द्वारा परमेश्वर की पूजा किस प्रकार की जाये, इसके लिए मनुष्य को चाहिए कि पूर्व-भक्तों के पद-चिह्नों का अनुसरण करे अथवा हृदय के भीतर ही मंत्रोच्चार करके भगवान् की, पूजा करे जो मंत्र से भिन्न नहीं हैं।
 
तात्पर्य
 यहाँ यह संस्तुति की गई है कि यदि कोई बताई गई समस्त सामग्री से भगवान् के रूपों की पूजा-व्यवस्था नहीं कर सकता तो उसे चाहिए कि वह भगवान् के स्वरूप और शास्त्रों द्वारा वर्णित सभी वस्तुओं को मन से प्रदान करे जिसमें जल, चन्दन-लेप, शंख, छत्र, पंखा तथा चामर सम्मिलित हैं। इनका अर्पण करते समय ध्यान धरा जाये और बारह अक्षर के मंत्र ॐ नमो भगवते वासुदेवाय का जप किया जाय। चूँकि मंत्र तथा भगवान् अभिन्न हैं, अत: भौतिक सामग्रियों के अभाव में भगवान् की पूजा मंत्र द्वारा करे। इस प्रसंग में उस ब्राह्मण की कथा को देखना चाहिए जिसने मन के भीतर भगवान् की पूजा की, जैसाकि भक्ति-रसामृत-सिन्धु में वर्णित है। यदि सामग्री उपस्थित न रहे तो उसके विभिन्न अवयवों का चिन्तन करके मंत्रोच्चार द्वारा श्रीविग्रह को अर्पित करे। भक्तियोग की ये सुविधाएँ अत्यन्त सरल व शक्तिसम्पन्न हैं।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥