श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 8: ध्रुव महाराज का गृहत्याग और वनगमन  »  श्लोक 62
 
 
श्लोक  4.8.62 
इत्युक्तस्तं परिक्रम्य प्रणम्य च नृपार्भक: ।
ययौ मधुवनं पुण्यं हरेश्चरणचर्चितम् ॥ ६२ ॥
 
शब्दार्थ
इति—इस प्रकार; उक्त:—कहा गया; तम्—उसको (नारद मुनि को); परिक्रम्य—प्रदक्षिणा करके; प्रणम्य—नमस्कार करके; च—भी; नृप-अर्भक:—राजा का पुत्र; ययौ—पास गया; मधुवनम्—वृन्दावन का एक जंगल जो मधुवन कहलाता है; पुण्यम्—शुभ; हरे:—भगवान् का; चरण-चर्चितम्—श्रीकृष्ण के चरणकमल द्वारा अंकित ।.
 
अनुवाद
 
 जब राजपुत्र ध्रुव महाराज को नारद मुनि इस प्रकार उपदेश दे रहे थे तो उन्होंने अपने गुरु नारद मुनि की प्रदक्षिणा की और उन्हें सादर नमस्कार किया। तत्पश्चात् वे मधुवन के लिए चल पड़े, जहाँ श्रीकृष्ण के चरणकमल सदैव अंकित रहते हैं, अत: जो विशेष रूप से शुभ है।
 
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥