श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 8: ध्रुव महाराज का गृहत्याग और वनगमन  »  श्लोक 66
 
 
श्लोक  4.8.66 
अप्यनाथं वने ब्रह्मन्मा स्मादन्त्यर्भकं वृका: ।
श्रान्तं शयानं क्षुधितं परिम्‍लानमुखाम्बुजम् ॥ ६६ ॥
 
शब्दार्थ
अपि—निश्चय ही; अनाथम्—अरक्षित; वने—जंगल में; ब्रह्मन्—हे ब्राह्मण; मा—अथवा, नहीं; स्म—नहीं; अदन्ति—भक्षण किया; अर्भकम्—निरीह बालक; वृका:—भेडिय़े; श्रान्तम्—थका हुआ; शयानम्—लेटा हुआ; क्षुधितम्—भूखा; परिम्लान— मुरझाया; मुख-अम्बुजम्—कमल के समान मुख ।.
 
अनुवाद
 
 हे ब्राह्मण, मेरे पुत्र का मुख कमल के फूल के समान था। मैं उसकी दयनीय दशा के विषय में सोच रहा हूँ। वह असुरक्षित और अत्यन्त भूखा होगा। वह जंगल में कहीं लेटा होगा और भेडिय़ों ने झपट करके उसका शरीर काट खा लिया होगा।
 
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥