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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 8: ध्रुव महाराज का गृहत्याग और वनगमन  »  श्लोक 67
 
 
श्लोक  4.8.67 
अहो मे बत दौरात्म्यं स्त्रीजितस्योपधारय ।
योऽङ्कं प्रेम्णारुरुक्षन्तं नाभ्यनन्दमसत्तम: ॥ ६७ ॥
 
शब्दार्थ
अहो—ओह; मे—मेरा; बत—निश्चय ही; दौरात्म्यम्—क्रूरता; स्त्री-जितस्य—स्त्री का गुलाम; उपधारय—जरा सोचो तो; य:— जो; अङ्कम्—गोद; प्रेम्णा—प्रेमवश; आरुरुक्षन्तम्—चढऩे को इच्छुक; —नहीं; अभ्यनन्दम्—उचित ढंग से आदर; असत्- तम:—अत्यन्त क्रूर ।.
 
अनुवाद
 
 अहो! जरा देखिये तो मैं कैसा स्त्री का गुलाम हूँ! जरा मेरी क्रूरता के विषय में तो सोचिये! वह बालक प्रेमवश मेरी गोद में चढऩा चाहता था, किन्तु मैंने न तो उसको आने दिया, न उसे एक क्षण भी दुलारा। जरा सोचिये कि मैं कितना कठोर-हृदय हूँ!
 
 
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