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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 8: ध्रुव महाराज का गृहत्याग और वनगमन  »  श्लोक 72
 
 
श्लोक  4.8.72 
त्रिरात्रान्ते त्रिरात्रान्ते कपित्थबदराशन: ।
आत्मवृत्त्यनुसारेण मासं निन्येऽर्चयन्हरिम् ॥ ७२ ॥
 
शब्दार्थ
त्रि—तीन; रात्र-अन्ते—रात बीतने पर; त्रि—तीन; रात्र-अन्ते—रात बीतने पर; कपित्थ-बदर—कैथा तथा बेर; अशन:—खाते हुए; आत्म-वृत्ति—शरीर पालने के लिए निर्वाह; अनुसारेण—आवश्यक या न्यूनतम; मासम्—एक माह; निन्ये—बीत गया; अर्चयन्—पूजा करते; हरिम्—भगवान् की ।.
 
अनुवाद
 
 ध्रुव महाराज ने पहले महीने में अपने शरीर की रक्षा (निर्वाह) हेतु हर तीसरे दिन केवल कैथे तथा बेर का भोजन किया और इस प्रकार से वे भगवान् की पूजा को आगे बढ़ाते रहे।
 
तात्पर्य
 कपित्थ एक फल है, जो हिन्दी में कैथा कहलाता है। इसके फल प्राय: बन्दर खाते हैं, इसे मनुष्य कम ही खाते हैं। किन्तु ध्रुव महाराज ने स्वाद की तृप्ति के लिए नहीं वरन शरीर के निर्वाह के लिए ऐसे फलों को ग्रहण करना स्वीकार किया। शरीर को भोजन चाहिए, किन्तु भक्त को चाहिए कि जीभ की तुष्टि के लिए भोजन न करे। भगवद्गीता में आदेश है कि शरीर को स्वस्थ रखने भर के लिए ही भोजन किया जाय, विलास के लिए नहीं। ध्रुव महाराज आचार्य थे, किन्तु तपस्या करके वे हमें शिक्षा देना चाहते थे कि भक्ति किस प्रकार की जाये। हमें ध्रुव महाराज की भक्ति-प्रक्रिया को भली-भाँति समझना चाहिए। उन्होंने कितने कष्ट से दिन बिताये, यह अगले श्लोकों में बताया जाएगा। हमें यह सदैव स्मरण रखना होगा कि भगवान् का प्रामाणिक भक्त बनना कोई सरल कार्य नहीं, किन्तु इस युग में, भगवान् चैतन्य की कृपा से यह सरल हो गया है। किन्तु यदि हम चैतन्य महाप्रभु के उदार आदेशों का भी पालन नहीं कर सकते तो हम भक्ति के नियमित कर्तव्यों को करने की आशा कैसे कर सकते हैं? इस युग में ध्रुव महाराज के तप का अनुसरण कर पाना कठिन है, किन्तु नियमों का पालन होना चाहिए। हमें चाहिए कि गुरुओं द्वारा बताये गये विधि-विधानों का उल्लंघन न करें क्योंकि वे बद्धजीव के लिए इन्हें सरल बता देते हैं। जहाँ तक हमारे इस्कान आन्दोलन का सम्बन्ध है, हम केवल यही कहते हैं कि मनुष्य चार निषेधात्मक नियमों का पालन करे, सोलह माला जप करे और जीभ को स्वाद में न लगा कर भगवान् को प्रदत्त एकमात्र प्रसाद ही ग्रहण करे। इसका यह अर्थ नहीं है कि यदि हम उपवास करें तो भगवान् भी उपवास करें। भगवान् को अच्छा से अच्छा भोग चढ़ाएँ, किन्तु हमारा उद्देश्य अपने स्वाद की पूर्ति करना नहीं होना चाहिए। जहाँ तक सम्भव हो सादा भोजन ग्रहण करें, जिससे भक्ति करने के लिए शरीर निर्वाह हो सके।

हमारा कर्तव्य है कि हम यह सदा स्मरण रखें कि ध्रुव महाराज की तुलना में हम नगण्य हैं। उन्होंने आत्म-साक्षात्कार के लिए जो कुछ किया उसे कर पाना हमारे लिए नितान्त असम्भव है क्योंकि हम ऐसी सेवा करने में अक्षम हैं। किन्तु इस युग के लिए हमें चैतन्य महाप्रभु ने सभी प्रकार की छूट दे रखी हैं, अत: हम इतना तो स्मरण रखें कि भक्ति हेतु कर्तव्यों को न करने से हमारे उद्देश्य की पूर्ति नहीं हो सकती। हमारा परम कर्तव्य है कि हम ध्रुव महाराज के चरण-चिह्नों का अनुसरण करें, क्योंकि वे अत्यन्त दृढ़व्रत थे। हमें भी इस जीवन में भक्ति करने के लिए अपने कार्यों को पूरा करने का व्रत लेना चाहिए; हमें इस कार्य को पूरा करने के लिए दूसरे जीवन की प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए।

 
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