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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 8: ध्रुव महाराज का गृहत्याग और वनगमन  »  श्लोक 76
 
 
श्लोक  4.8.76 
पञ्चमे मास्यनुप्राप्ते जितश्वासो नृपात्मज: ।
ध्यायन् ब्रह्म पदैकेन तस्थौ स्थाणुरिवाचल: ॥ ७६ ॥
 
शब्दार्थ
पञ्चमे—पाँचवें; मासि—महीने में; अनुप्राप्ते—स्थित होकर; जित-श्वास:—तब भी श्वास को नियंत्रित करके; नृप-आत्मज:— राजा का पुत्र; ध्यायन्—ध्यान करता हुआ; ब्रह्म—भगवान्; पदा एकेन—एक पाँव से; तस्थौ—खड़ा रहा; स्थाणु:—ठूँठ के; इव—समान; अचल:—स्थिर, जड़ ।.
 
अनुवाद
 
 पाँचवें महीने में राजपुत्र महाराज ध्रुव ने श्वास रोकने पर ऐसा नियत्रंण प्राप्त कर लिया कि वे एक ही पाँव पर खड़े रहने में समर्थ हो गए, मानो कोई अचल ठूँठ हो। इस प्रकार उन्होंने परब्रह्म में अपने मन को केन्द्रित कर लिया।
 
 
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